माओवादी नैरेटिव: वामपंथी दीमक की अंतिम चीख और भारतीय जनजाति समाज का वास्तविक सत्य

भारत में माओवादी हिंसा और उसके समर्थन में गढ़े जाने वाले भावनात्मक नैरेटिव एक लंबे समय से जनमानस को भ्रमित करते रहे हैं। किसी घटना, व्यक्ति या आंदोलन को लेकर आधे-अधूरे तथ्यों के आधार पर भावुक कहानियाँ रच देना वामपंथी विचारधारा की पुरानी शैली रही है। हाल ही में माडवी हिडमा को “जनजाति योद्धा” बताकर प्रस्तुत करने वाले संदेश इसी तंत्र का हिस्सा हैं।

यह समझना आवश्यक है कि इस प्रकार के संदेशों का उद्देश्य क्या है, और भारतीय समाज विशेषकर जनजाति समाज इनसे कैसे प्रभावित होता है। सोशल मीडिया पर प्रसारित एक मनोरम जानकारी को पढ़कर यह पोस्ट लिखी गई है। साथ ही वामपंथी नर पिशाच विश्वविद्यालय और बड़े शहर राजधानी आदि में प्रदर्शन करेंगे। इसको महिमामण्डित करेंगे।

यदि एक भी कहानी आप ने अर्धसैनिक बलों के निर्मम हत्या की सुन ली तो आप चैन से भोजन नहीं कर सकोगे…. नक्सलियों द्वारा जनजाति महिलाओं के यौन शोषण की दर्दनाक दास्तानों की जानकारी पता चलेगी तो इनके साथ नहीं दे सकोगे… माँ न बन सके इसलिये नाबालिग लड़कियों के गर्भाशय निकाल देने की जानकारी मिलेगी। तो आसूं नहीं खून टपकने लगेगा।

वामपंथी नैरेटिव: शासन को दमनकारी और हिंसा को न्यायोचित ठहराने की कला

वामपंथी प्रचारतंत्र की मूल रणनीति सदैव दो चरणों पर आधारित होती है, पहला, शासन-प्रशासन को “दमनकारी, पूंजीवादी और क्रूर” सिद्ध करना और दूसरा, माओवादी-नक्सली हिंसा को “प्राकृतिक प्रतिरोध” और “क्रांति” की संज्ञा देना।

जब किसी आतंकवादी की मृत्यु होती है, तो उसे तुरंत “मांटीका का रक्षक”, “जंगल का प्रहरी”, “उत्पीड़ितों का हीरो”, “शोषित वर्ग का प्रवक्ता” घोषित कर दिया जाता है। यह वही तकनीक है जिससे आम जनता को भ्रमित किया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि माओवादी हिंसा का सबसे बड़ा शिकार स्वयं जनजाति समाज ही है। शेष नगरीय जीवन में यही कहानी बदलकर वर्षों से अल्पसंख्यक (विशेषकर द्वितीय सबसे अधिक जनसंख्या) पर कही जाती है। और गांवों में दलित उत्पीड़न पर इन कथानको पर विशेष काम होता है। प्रत्येक घटनाओं को वामपंथी विचार अपनी सुविधा अनुसार विकसित करता है और समाज में दरार पैदा कर उसे दो भागों में विभाजित करता है।

सोनी सोरी जैसी कथाएँ: सत्य, आधा-सत्य और वैचारिक चश्मे का खेल

सोनी सोरी जैसे अनेक मामलों को वामपंथी विचारधारा “राज्य दमन” का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत करती है। कहाँ क्या हुआ- इसका पूरा विवरण कोई नहीं देखता। किस संदिग्ध गतिविधि की वजह से जांच हुई, कौन-सी सूचना उपलब्ध थी, कौन किससे जुड़ा था- इन सब पर पर्दा डालकर इसे “जनजाति महिला उत्पीड़न” का केस कहा जाता है। यह वामपंथी रणनीति की सफलता ही है कि भावनात्मक कथा स्थापित होते ही सत्य पीछे छूट जाता है। शासन पर आरोप लगाना आसान है, पर प्रशासनिक निर्णय हमेशा कहानीकारों की तरह भावुक नहीं होते- वे कठोर साक्ष्यों और कानूनी दायित्वों पर आधारित होते हैं।

हिडमा का महिमामंडन: जनजातियों के नाम पर चल रही सबसे क्रूर धोखाधड़ी

जिस माडवी हिडमा को “जनता का योद्धा” बताकर सम्मानित करने की कोशिश की जा रही है, वह देश के सबसे कुख्यात माओवादी कमांडरों में से एक था। उसके नेतृत्व में:

  • सैकड़ों भारतीय जवान मारे गए,
  • जनजाति समाज में जबरन युवक और युवतियों के नक्सली भर्ती अभियान चलाए गए,
  • सैकड़ों जनजाति महिलाओं का यौन शोषण हुआ।
  • स्कूल, सड़कें, अस्पताल उड़ा दिए गए, शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य आज भी बहुत कठिन
  • और बस्तर के विकास को दशकों पीछे धकेल दिया गया। आवागमन के मार्ग तक अवरुद्ध किये। क्या यह “जनता का रक्षक” कहलाएगा?
    सच यह है कि माओवादी सबसे पहले स्थानीय जनजाति समाज को गुलाम बनाते हैं। उनके बच्चों को भर्ती करते हैं, उनके गाँवों को आधार शिविर बनाते हैं, और विकास कार्यों को रोककर उन्हें हमेशा गरीबी में धकेलते रहते हैं।
    हिडमा का महिमामंडन दरअसल जनजातियों को “भारत-विरोधी” मानसिकता में ढालने का प्रयास है।

क्या गरीबी नक्सलवाद को जन्म देती है?, यह एक घातक मिथक है.

वामपंथी संदेश अक्सर कहते हैं कि “शोषण और गरीबी नक्सलवाद की जननी है।” यह तर्क आधा-सच है—और इसी वजह से खतरनाक है। यदि गरीबी ही नक्सलवाद का कारण होती, तो-

  • भूटान,
  • नेपाल के पर्वतीय जनजातीय क्षेत्र,
  • भारत के सबसे गरीब जिलों (जहाँ माओवादी नहीं)

क्या सभी जगह नक्सलवाद होना चाहिए? सच यह है कि नक्सलवाद विचारधारात्मक प्रदूषण, विदेशी समर्थन, और अर्बन इंटेलेक्चुअल लॉबी के कारण पनपता है। सिर्फ आर्थिक हालात इसकी बुनियाद नहीं हैं। भारत के कई जनजाति समुदाय अत्यंत गरीब हैं, पर वे राष्ट्रविरोधी नहीं क्योंकि उन्हें माओवादी विचारधारा ने भ्रष्ट नहीं किया।

जनजातियों की वास्तविक सुरक्षा: भारतीय राज्य या माओवादी?

इतिहास बताता है कि जनजाति समाज के —

  • वनाधिकार,
  • भूमि अधिकार,
  • शिक्षा-सुरक्षा,
  • रोजगार,
  • स्वशासन का सबसे बड़ा संरक्षक भारतीय राज्य ही रहा है।
    वनाधिकार कानून, पेसा, जिला पंचायत प्रणाली, वन समितियाँ – ये सब माओवादियों ने नहीं दिए।
    इसके विपरीत:
  • माओवादी स्कूल उड़ा देते हैं ताकि बच्चों में शिक्षा न आए।
  • सड़कें उड़ा देते हैं ताकि पुलिस न पहुँच सके।
  • ग्राम सभाओं को बंदूक की नोक पर बिठाते हैं।
  • जनजाति समाज के भीतर भय का साम्राज्य कायम करते हैं।
    पर वामपंथी इसे “लोगों का प्रतिरोध” कहकर सुन्दर पटकथा बना देते हैं।

वामपंथियों और उद्योगपतियों पर दोहरे मापदंड :

वामपंथी नेताओं द्वारा टाटा, जिंदल, अंबानी, अदानी पर शोषण के आरोप लगाना एक स्थापित शैली है। लेकिन स्वयं वामपंथी नेता भारत के ही नहीं, विश्व स्तर पर-

  • करोड़ों-अरबों की संपत्ति के मालिक हैं,
  • विलासिता में जीवन बिताते हैं,
  • विदेश दौरों पर रहते हैं,
  • NGO फंडिंग लेते हैं,
  • लेकिन “सेवा” का एक भी प्रोजेक्ट स्वयं नहीं चलाते।

यदि वास्तव में उन्हें खनन का इतना विरोध है, तो क्या वे गांव की खदानों का लाइसेंस लेकर उन्हें “जनता” के लिए चला सकते हैं? कभी नहीं। उनके लिए गरीब केवल एक राजनीतिक विषय है सेवा का निमित्त नहीं। भारत में वामपंथी सत्ता में रहे है। 15 वर्षों से लेकर 30 वर्षों तक राज्यों का संचालन किया है। वहाँ पर एक भी समस्या कि समाधान नहीं कर सके। वहाँ हिंसा अन्य राज्यों से अधिक है। गरीबी अधिक है। सामाजिक संचेतना जागरण के प्रयास, सेवा व्यवस्था, सामाजिक समरसता, सद्भावना, रोजगार संसाधन, स्वावलम्बन शून्य है।

एकात्म मानववाद: समाधान का भारतीय मार्ग

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था- “समाज संघर्ष से नहीं—समरसता और सहभागिता से चलता है।” एकात्म मानवदर्शन बताता है कि:

  • गरीबी का समाधान हिंसा नहीं- विकास है।
  • जनजातियों का कल्याण बंदूक नहीं- सहभागिता है।
  • जंगल की रक्षा विदेश पोषित माओवादी विचार और बंदूक से नहीं- संपूर्ण भारतीय समाज करता है।
  • संसाधन राष्ट्र की संपत्ति हैं- किसी समूह की बंधक नहीं।
    यहाँ “मानव का अन्तर्निहित मूल्य” सर्वोच्च है,
    जबकि माओवादी विचारधारा “मानव” को केवल “क्रांतिकारी संसाधन” के रूप में देखती है और हिंसक बनाती है।

हिडमा की मृत्यु और वामपंथी नैरेटिव की अंतिम हिचकी :

आज जब बस्तर, झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र में माओवादी प्रभाव तेजी से घट रहा है- तब इस प्रकार के संदेश केवल यह बताते हैं कि वामपंथी विचारधारा अपने अंतिम दौर में है। यह आखिरी कोशिश है :

  • आतंकियों को नायक बनाकर,
  • प्रशासन को क्रूर बताकर,
  • और सुरक्षा बलों को अमानवीय बताकर
    पुरानी भावुक कथाओं को पुनर्जीवित करने की।
    पर अब यह स्क्रिप्ट पुरानी हो चुकी है।

माओवादी हिंसा का अंत : जनजाति समाज, लोकतंत्र और मानवता-तीनों की विजय

माडवी हिडमा जैसे आतंकियों को “जनता का योद्धा” कहना- केवल एक वैचारिक धोखाधड़ी है। भारत का जनजाति समाज माओवादी हिंसा का शिकार और पीड़ित रहा है। उसका रक्षक नहीं। आज जब

  • सड़कें बन रही हैं,
  • शिक्षा पहुँच रही है,
  • स्वास्थ्य सुविधाएँ विकसित हो रही हैं,
  • सुरक्षा बल जनजातियों से संवाद बढ़ा रहे हैं,
    तो माओवादियों का वैचारिक किला ढह रहा है।

इस षड्यंत्र को और समझना है तो दिल्ली जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक केंद्र में जब “पर्यावरण बचाओ”, “हरित भविष्य”, “क्लाइमेट जस्टिस” जैसे सुनने में अत्यंत नैतिक और सार्वभौमिक लगने वाले मुद्दों पर भीड़ जुटाई जाती है, तब यह सामान्य प्रदर्शन मात्र नहीं होता। यह प्रायः वैचारिक प्रयोगशाला भी बन जाता है। बीते वर्षों में अनेक बार देखा गया है कि पर्यावरण के नाम पर संगठित किए गए ऐसे कार्यक्रमों में माओवादी, नक्सलवादी, अर्बन-नक्सल और कल्चरल मार्क्सवादी समूहों की सक्रिय भागीदारी रही है।

इनका स्थायी पैटर्न यह है कि वे किसी भावनात्मक, नैतिक और सार्वभौमिक मुद्दे के भीतर अपनी विचारधारा का बीज बोते हैं। पर्यावरण जैसा विषय आम नागरिक को जोड़ता है, क्रोध और चिंता पैदा करता है, और सरकारों पर दबाव बनाने का आसान माध्यम बन जाता है। इसी खाई का उपयोग करते हुए वे अपने एजेंडे को ‘पर्यावरणीय न्याय’ या ‘लोकतांत्रिक प्रतिरोध’ के नाम पर प्रचारित करते हैं।

ऐसे प्रदर्शनों में नारे सामान्यतः पर्यावरण से आगे बढ़कर “जन–क्रांति”, “राज्य प्रतिरोध”, “सिस्टम फेल”, “लोग बनाम सत्ता” जैसे घोषणाओं तक पहुँच जाते हैं। यह परिवर्तन आकस्मिक नहीं होता। यह उसी की पुष्टि करता है कि लक्ष्य पर्यावरण की रक्षा नहीं, बल्कि राज्य की वैधता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करना है। इस रणनीति का दूसरा पहलू है धोखा और छद्मावरण। पर्यावरण, मानवाधिकार, महिला सुरक्षा, छात्र आंदोलनों – हर संवेदनशील विषय को वे वैचारिक ढाल बना लेते हैं। भीड़ को लगता है कि वे किसी जनहित कार्य में भाग ले रहे हैं, पर मंच, पोस्टर, नारे और नेतृत्व धीरे-धीरे आंदोलन को राजनीतिक–वैचारिक दिशा में मोड़ देते हैं। यही उनकी अर्बन-इंफिल्ट्रेशन तकनीक है। सॉफ्ट इश्यू में हार्ड एजेंडा छुपाना।

इसलिए दिल्ली में पर्यावरण के नाम पर आयोजित ऐसे प्रदर्शनों का विश्लेषण केवल एक आंदोलन के रूप में नहीं किया जा सकता। यह उस संगठित विचार-योजना का हिस्सा है, जहाँ लोकतांत्रिक असंतोष का उपयोग कर राज्य-विरोधी मानसिकता को स्थापित किया जाता है। पर्यावरण, यहाँ केवल बहाना है। लक्ष्य है वैचारिक विस्तार और राजनीतिक अस्थिरता की जमीन तैयार करना। इस प्रकार के संदेश वनवासी, गिरिवासी जंगल एवं पहाडों से लेकर नगरीय राजधानियों, शिक्षण संस्थाओं तक “वामपंथी दीमक की अंतिम चीख-पुकार” हैं। माओवादी हिंसा का अंत भारतीय लोकतंत्र की ही नहीं, बल्कि जनजाति समाज और मानवता की भी एक ऐतिहासिक जीत है। सामाजिक रचनाओं को परस्पर सहयोग से मिलकर गुंथा जाता है। उसमें संस्कार, पर हित, मानवीय अपनापन चाहिए अराजकता नहीं।

श्री कैलाशचंद्र


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