भारत एक विशाल देश है। यहाँ सब ओर विविधता दिखाई देती है। शहर से लेकर गाँव,पर्वत, वन और गुफाओं तक में लोग निवास करते हैं। मध्य प्रदेश और गुजरात की सीमा पर बड़ी संख्या में भील जनजाति के लोग बसे हैं। श्री बालेश्वर दयाल (मामा) ने अपने सेवा एवं समर्पण से महाराणा प्रताप के वीर सैनिकों के इन वशंजों के बीच में देवता जैसी प्रतिष्ठा अर्जित की।
मामा जी का जन्म पाँच सितम्बर, 1906 को ग्राम नेवाड़ी (जिला इटावा, उ.प्र.) में हुआ था। सेवा कार्य में रुचि होने के कारण नियति उन्हें मध्य प्रदेश ले आयी और फिर जीवन भर वे भीलों के बीच काम करते रहे। 1937 में उन्होंने झाबुआ जिले में ‘बामनिया आश्रम’ की नींव रखी तथा भीलों में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने में जुट गये। इससे तत्कालीन जमींदार, महाजन और राजा उनसे नाराज हो गये और उन्हें जेल में बन्द कर दिया; पर वहाँ की यातनाओं को सहते हुए उनके संकल्प और दृढ़ हो गये।
मामा बालेश्वर दयाल
कुछ समय बाद एक सेठ ने उनसे प्रभावित होकर ‘थान्दला’ में उन्हें अपने मकान की ऊपरी मंजिल बिना किराये के दे दी। यहाँ मामा जी ने छात्रावास बनाया। धीरे-धीरे स्थानीय लोगों में विश्वास जागने लगा। 1937 के भीषण अकाल के बाद ईसाई मिशनरी वहाँ राहत कार्य हेतु आये; पर उनकी रुचि सेवा में कम और धर्मान्तरण में अधिक थी। यह देखकर मामा जी ने पुरी के शंकराचार्य की लिखित सहमति से भीलों को क्रॉस के बदले जनेऊ दिलवाया। कुछ रूढ़िवादी हिन्दू संस्थाओं ने इसका विरोध किया; पर मामा जी उस क्षेत्र की वास्तविक स्थिति को अच्छी तरह जानते थे। अतः वे इस कार्य में लगे रहे। इससे वहाँ धर्मान्तरण पर काफी रोक लगी।
धीरे-धीरे उनकी चर्चा सर्वत्र होने लगी। सेठ जुगलकिशोर बिड़ला ने बामनिया स्टेशन के पास पहाड़ी पर एक भव्य राम मन्दिर बनवाया। आज भी उसकी देखरेख उनके परिवारजनों की ओर से ही होती है। मिशनरी वहाँ चर्च बनाने वाले थे; पर मामा जी ने उनका यह षड्यन्त्र विफल कर दिया।
मामा जी आर्य समाज तथा सोशलिस्ट पार्टी से भी जुड़े रहे। उनके आश्रम में सुभाषचन्द्र बोस, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण,डॉ. राममनोहर लोहिया, चौधरी चरणसिंह,जार्ज फर्नांडीस जैसे नेता आते रहते थे; पर मामा जी ने राजनीति की अपेक्षा सेवा कार्य को ही प्रधानता दी।
मामा जी का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था; पर जब उन्होंने सेवा व्रत स्वीकार किया, तो फिर वे भीलों की बीच उनकी तरह ही रहने लगे। वे भी उनके साथ चना, जौ और चुन्नी के आटे की मोटी रोटी खाते थे। आश्रम द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘गोबर’ का छह वर्ष तक मामा जी ने सम्पादन किया। उनका देहान्त 26 दिसम्बर, 1998 को आश्रम में ही हुआ।
मामा जी के देहान्त के बाद आश्रम में ही उनकी समाधि बनाकर प्रतिमा स्थापित की गयी। तत्कालीन खाद्य मन्त्री शरद यादव एवं रेलमन्त्री नितीश कुमार उसके अनावरण के समय वहाँ आये थे। निकटवर्ती जिलों के भील मामा जी को देवता समान मानते हैं तथा आज भी साल की पहली फसल आश्रम को भेंट करते हैं।
प्रतिवर्ष तीन बार वहाँ सम्मेलन होता है, जहाँ हजारों लोग एकत्र होकर मामा जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। बामनिया आश्रम से पढ़े अनेक छात्र आज ऊँची सरकारी एवं निजी सेवाओं में हैं। उनके नेत्र सेवामूर्ति ‘मामा जी’ को याद कर अश्रुपूरित हो उठते हैं।
मामा जी की पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन्।
निलेश कटारा, झाबुआ