चार आर्य सत्य का पुनः उद्घाटन कर भगवान बुद्ध ने आर्य धर्म का ही प्रसार और विस्तार किया। उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म कोई नवीन धर्म नहीं था परंतु तत्कालीन वैदिक ( वर्तमान हिंदू ) धर्म और समाज में अधिक नैतिक और पवित्रता जीवन व्यतीत करने के लिए एक सुलभ मार्ग था। वास्तव में बौद्ध धर्म सुधारवादी धार्मिक आंदोलन था जिसका उद्देश्य वैदिक (वर्तमान हिंदू) धर्म में प्रविष्ट व उत्पन्न त्रुटियों का निवारण करना था।
बुद्ध कोई नवीन धर्म प्रवर्तक या पैगंबर नहीं थे बल्कि एक महान संत या ऋषि थे जिन्होंने अपने श्रोताओं को अपने दुर्गुणों को त्याग देने और पवित्र व सदाचार पूर्ण जीवन विधि करने का उपदेश दिया था। सच्चे धर्म का सार तत्व भी यही है, उन्होंने स्वयं न तो किसी नवीन धर्म की घोषणा ही की और न नवीन सिद्धांतों व नवीन धार्मिक क्रियाविधियों या नवीन दार्शनिक तत्वों का ही आदेश दिया। उन्होंने हिंदू धर्म के अंतर्गत ही शाश्वत सत्य की खोज की, जिन नैतिक सिद्धांतों का उन्होंने प्रतिपादन किया वह उपनिषद में पहले से ही वर्णित है ।बौद्ध धर्म के आधारभूत सिद्धांत तात्कालिक भारत के दर्शन और उपनिषदों से लिए गए हैं ।
मानव जीवन कष्ट में है इन कष्टों की वृद्धि स्वयं आत्मा द्वारा होती है जो पुनर्जन्म के चक्र से गुजरती रहती है और इस पुनर्जन्म का अंत ही कष्टों का अवसान है तथा अवसान नैतिक आत्म नियंत्रण और समस्त वासनाओं के दमन से ही प्राप्त होता है । बुद्ध के इस सिद्धांत का प्रतिपादन उपनिषदों में है पुनर्जन्म के अवसान और वासनाओं के विनाश हेतु बुद्ध ने जो अष्टांगिक मार्ग बताया वह साधारण नैतिक नियमावली है ना कि निर्दिष्ट स्पष्ट धर्म के विशिष्ट सिद्धांत।
उदाहरण के लिए, द्रव्य ग्रहण न करना और न रखना अपरिग्रह है जिसे जैन दर्शन का मूल तत्त्व कहा जाता है उसे बुद्ध द्वारा अपनाने पर बल देना बताता है कि वह वही कह रहे हैं जो सनातन रूप से कहा जा रहा है।
बुद्ध ने स्वयं प्राचीन ऋषियों के सद्गुणों और नैतिक आचार विचार की बार-बार मुक्त कंठ से प्रशंसा की है अतः बुद्ध धर्म ने ब्राह्मण के पवित्र रीति रिवाज और नैतिक आचरण के अनेक सिद्धांत अपना लिए। बौद्ध संघ में भिक्षुओं के कर्तव्यों और उनके आचरण के नियमों को छोड़कर बौद्ध संप्रदाय स्वयं कोई मौलिक सिद्धांत या नैतिक विधान न था। इस प्रकार जहां तक आधारभूत दर्शन का प्रश्न है बुद्ध और उनके पूर्व के वैदिक ऋषि मुनियों में अंतर नहीं है। जातक ग्रंथों के अनुसार बुद्ध ने बार-बार कहा है की सच्ची पवित्रता निर्दिष्ट प्रार्थनाओं के दोहराने या कर्मकांड के संपादन में नहीं बल्कि पवित्र जीवन और मरण में है।
बुद्ध ने रक्तिम यज्ञों का निषेध किया पर यह भी कोई नवीन बात नहीं थी। यज्ञों के इस स्वरूप का विरोध उपनिषदों ने भी किया उन्होंने घोषणा की कि संसार सागर पार करने के लिए केवल यज्ञ टूटी नाव के समान है।
उपनिषदों को अत्यंत सरल रूप जनता ने ग्रहण किया और इसलिए उस समय एक चौथाई विश्व ने उद्घोष किया,
बुद्धम शरणम् गच्छामि।
– श्री पवन विजय