भारतीय संस्कृति अपने में प्रकृतिसङ्गत सहज और सफल जीवन के मनोवैज्ञानिक सूत्र छुपाये हुए है,इसे हमारे पर्व-त्योहार व परम्पराएं सिद्ध करती हैं।
अनेकानेक पर्व,लोकोत्सव भारतीय भूमि पर अस्तित्व रखते हैं ,क्षेत्रवार इनका अपना-अपना महत्व है ,ऐसा ही एक त्योहार है गणगौर तीज का जो विशेषतः राजस्थान व मालवांचल में अत्यंत प्रसिद्ध है किंतु विश्वग्राम अवधारणा के चलते न केवल सम्पूर्ण भारत में सम्बंधित समुदाय अपितु विदेशों में बसे भारतीय भी इसे हर्षोल्लास से मनाते हैं ।
गणगौर तीज कुमारी बालिकाओं व सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला व्रत है । कुमारियां इसे मनोवांछित वर की प्राप्ति हेतु तो विवाहित स्त्रियां अखंड सौभाग्य की कामना से करती हैं ।
यह व्रत चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर चैत्र शुक्ल तृतीया को समापन होता है।
प्रकृति से सामीप्य इस व्रत की प्राथमिकता है क्योंकि इसमें गण अर्थात शिव और गौर अर्थात पार्वती की प्रतिमा मिट्टी से बनाई जाती है ,जिसे प्रतिदिन सुबह कच्चे दूध के छींटे दूब की सहायता से दिये जाते हैं ,वास्तव में यह प्रकृति चक्र का प्रायोगिक ज्ञान है क्योंकि मिट्टी बिना दूब का होना सम्भव नहीं है और दूब अर्थात हरे चारे के बिना गोवंश का होना सम्भव नहीं है जिनसे हमें दूध प्राप्त होता है तो कुमारी बालिकाओं को बाल्यावस्था से ही गोदेवी व भूदेवी का महत्व समझ आने लगता है।साथ ही कई स्थानों पर व्रत के प्रारम्भ पर स्नान कर भीगें वस्त्रों से जवारे बोने का भी प्रचलन है , यही नहीं भारतीय समाज की मूल इकाई परिवार व इसका केंद्र स्त्री है तो विभिन्न सम्बन्धों में इनका मान-सम्मान कैसे बना रहे ताकि हमारी यह इकाई सुदृढ बनी रहे इसके मनोवैज्ञानिक शिक्षण की भी यह पर्व व्यवस्था करता है।
इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत प्रायः पति-पत्नी,ननद-भावज,भैया-भावज व सास-बहू पर आधारित होते हैं । बालिकाओं को श्वसुर ग्रह में किस प्रकार संस्कारमय जीवन शैली अपनानी है मधुर गीत इसकी झलक उसके बालमन पर छोड़ देते हैं और उसे समझ आता है कि ननद के प्रति स्नेह ,सास के प्रति आदर व पति के प्रति समर्पण ही सुंदर जीवन के केंद्र हैं ,यही नहीं मायके में भी भाई के साथ उतना ही आदर,स्नेह व अपनत्व भावज को भी देना है यह विचार भी उनके मन में इन्हीं लोकगीतों के माध्यम से अंकुरित होने लगता है। परिणाम यह आता है कि भारतीय परिवार व्यवस्था वर्तमान में भी विश्व में आदर्श है ।
यही नहीं इसका समापन हमारी संस्कृति की मूल अवधारणा “सर्वे भवन्तु सुखिनः” के उद्घोष के साथ और सामाजिक समरसता के साथ होता है जब सोलहवें दिवस गणगौर को किसी नदी-ताल-पोखर में विसर्जित करती हैं तो जो गीत व्रती स्त्रियां,कुमारियाँ गाती हैं उसमें न केवल अपने मायके-ससुराल अपितु सभी सखियां,पडौसी ,घरेलू श्रमिक,सेवक व समस्त सृष्टि के सुख की कामना करते हुए घुघरी बनाई व वितरित की जाती है जो गेंहू,चना,ज्वार इत्यादि को पानी में पर्याप्त उबालकर तैयार की जाती है ,इसका निर्माण और वितरण दोनों सामुदायिक स्तर पर होता है ,सभी व्रती स्त्रियां जो किसी भी वर्ण,कुल अथवा समुदाय से हों सभी को प्रसाद स्वरूप प्राप्त होती है ,चूंकि सोलह दिवस प्रत्येक दिन ये स्त्रियां साथ रहकर व्रत के विभिन्न चरण हंसी-ठिठोली के आनंद के साथ पूर्ण करती हैं तो यह अनुमान लगाना सहज है कि वास्तव में भारतीय समान समरसता मूलक है इसे किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता भी नहीं है।
कालांतर में हमारी परिवार व्यवस्था,स्त्री-सम्मान व सहज समरसता के भाव को यदि क्षति हुई है तो इसके कारणों में यह भी है कि ऐसे व्रत-त्योहारों का महत्व व इनके पारायण की मनोवृत्ति कुछ कम हुई है,क्योंकि ये उत्सव समय-समय पर मल्टीविटामिन टॉनिक की तरह कार्य करके और भारतीय समाज को विखंडन की ओर जाने से रक्षा करते रहे हैं। किंतु आशा भरा अनुमान यह भी है कि सोशल मीडिया के प्रभाव में फैशन व ट्रेंड से प्रेरित होकर ही सही नई पीढ़ी पुनः इनकी ओर मुड़ती दिखाई देती है ,यूट्यूब पर इस तरह के व्लाग,इंस्टाग्राम व पिंटरेस्ट पर ट्रेंडिंग रील्स व पिंस इसका संकेत है।
इस वर्ष गणगौर तीज अंग्रेजी कालगणना के अनुसार 4 अप्रैल को आ रही है ,सभी सौभाग्यवती स्त्रियों व व्रती बालिकाओं को अग्रिम शुभकामनाएं ।
लेखिका:-अचला शर्मा ऋषिश्वर (उज्जैन)