भारतीय इतिहास में परमारवंशीय राजा भोजदेव (संक्षिप्त नाम – राजा भोज) का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। राजा भोज का शासनकाल 1000 से 1055 ईस्वी तक रहा है। वे मालवा स्थित उज्जयिनी (अब – उज्जैन) के महानतम् राजा विक्रमादित्य की यशस्वी परंपरा से आते हैं और वे इस वंश परंपरा के ग्यारहवें राजा थे। राजा भोज के शासन काल के पूर्व यहॉं की राजधानी उज्जैन हुआ करती थी, जिसे राजा भोज ने अपने शासन काल के दौरान धार में स्थानांतरित कर दी थी। राजा भोज चूँकि कला एवं शिक्षा के रक्षक थे, इसलिए उन्होंने अपने शासनकाल में कई जगहों पर ‘भोजशालाओं’ की स्थापनाऍं कीं, जिनमें धार में स्थित भोजशाला प्रमुख एवं विश्वविख्यात है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि भोजशाला दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘भोज’ एवं ‘शाला’, अर्थात् राजा भोज द्वारा स्थापित शाला। मगर यह केवल बच्चों की ‘शाला’ नहीं थी, बल्कि एक असाधारण ‘विश्वविद्यालय’ था, जहॉं अध्ययन के लिए देश एवं विदेशों से भी छात्र आया करते थे। राजा भोज द्वारा भोजशाला में देवी वाग्देवी (सरस्वती) की मूर्ति की स्थापना की थी, क्योंकि हिन्दू समाज में माता सरस्वती को ज्ञान एवं वाणी की देवी कहा जाता है। सन् 1808 में खोदाई के दौरान यह प्रतिमा मिली थी, जिसे अंग्रेज अपने साथ लंदन ले गए थे, जो अब एक संग्रहालय में रखी है। इस मूर्ति के शिलालेख में राजा भोज के साथ ही साथ वाग्देवी का उल्लेख भी है।
क्या है मामला –
जैसा कि सभी मुगल, तुर्क, मंगोल इत्यादि विदेशी अहमदी आक्रांताओं ने जब-जब भारत पर आक्रमण किया, तो यहॉं पर लूटपाट के साथ ही यहॉं के आर्किटेक्ट की बेजोड़ कलाकृतियों, जिनमें विशेष रूप से मंदिर शामिल थे, को भी बेवजह तहस-नहस करने का कार्य लगातार किया। गौरतलब है कि उन्होंने इन आर्किटेक्ट स्ट्रक्चर्स को उतना ही नुक़सान पहुँचाया, जितना एक भारतीय के स्वाभिमान को कुचलने के लिए पर्याप्त था। बाकी का हिस्सा वे लोग इसलिए छोड़ देते थे कि आने वाली पीढियॉं भी इसे देखकर अनवरत कुढ़ती रहें और अपने स्वाभिमान को पुन: प्राप्त नहीं कर सकें। 13वीं शताब्दी में खिलीजी शासन के दौरान धार की भोजशाला को तोड़ दिया गया था, जिसे बाद में एक मजार में बदल दिया गया और हिन्दुओं से पूजा का अधिकार छीन लिया गया था। 14वीं और 15वीं शताब्दी में भोजशाला के दोनों ओर मस्जिदों का निर्माण भी कर दिया गया। आज इस स्थान पर हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों ही पक्ष अपना दावा करते हैं, मगर हिन्दुओं को अयोध्या, काशी, मथुरा की तरह ही हिन्दुओं को इसे प्राप्त करने के लिए भी शताब्दिक संघर्ष करना पड़ रहा है। इस समय स्थानीय प्रशासन द्वारा सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाने के लिए हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों ही यहॉं पर मंगलवार एवं शुक्रवार को बारी-बारी से पूजा एवं नमाज़ अदा करते हैं।
यह दौर हिन्दू समाज के पुनर्जागरण का दौर है, जिसमें इतिहास को टटोलने के साथ ही पूर्व में आक्रांताओं द्वारा की गई गलतियों को सुधारने का क्रम भी शुरू हो चुका है। अयोध्या के हिन्दुओं के आराध्य राजा श्रीराम का भव्य मंदिर आकार ले चुका है। काशी की ज्ञानवापी एवं मथुरा की ईदगाह में भी कोर्ट के निर्देशन में विभिन्न जॉंच एजेंसियों द्वारा जॉंचें चल रही हैं। वैसे तो इन्हें देखने मात्र से ही यह पता चल जाता है कि यह किसी समय मंदिर थे, मगर हिन्दू समाज इन धार्मिक स्थलों को भी न्यायालयीन प्रक्रिया के तहत ही प्राप्त करना चाहता है। इसी क्रम में 11 मार्च 2024 को इन्दौर हाई कोर्ट की बेंच के निर्देशानुसार ज्ञानवापी की तर्ज पर ही धार स्थित भोजशाला का भी ए.एस.आई. (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) द्वारा सर्वे किया जाएगा।
भोजशाला के प्रमाण में कुछ तथ्य:-
धार स्थित यह स्थान एक भोजशाला है, इसके प्रमाण इतिहास में जगह-जगह हैं। सर्वप्रथम इस दिशा में ब्रिटिश लेखकों ने अपनी रूचि दिखाई थी। ए.एस.आई. के भोपाल सर्कल के सर्वे के अनुसार वर्तमान मस्जिद के निर्माण में सरस्वती मंदिर के प्रमाण मिलते हैं। धार जिले की ऑफिशियल वेबसाईट के अनुसार वहॉं पर कई ऐसी टाईल्स एवं शिलालेख मिले हैं, जो कि संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में हैं एवं कई तो रचनाऍं भी हैं, जो कि इस स्थान पर हिन्दू समाज के दावे को मजबूत करती है। अब यह शिलालेख या रचनाऍं अरबों या मुगलों की संपत्ति तो हो ही नहीं सकते, यह स्पष्ट है!
ब्रिटिश लेखक कर्नल जॉन मैल्कम अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ मालवा’ के पेज नंबर 27 में लिखते हैं कि ‘‘मुगलों का बार-बार आक्रमण परेशानियों की एक लम्बी श्रृंखला के अलावा कुछ नहीं थी। मुगलों द्वारा बार-बार ज़मीनें हड़पने से इस प्रांत की सीमाऍं बदलती रही हैं। हालॉंकि यह तथ्य भी एकदम स्पष्ट है कि भारत देश केवल आंशिक रूप से ही अधीन (परतंत्र) रहा है, क्योंकि हमें भारत के लगभग हर जिले या प्रांत में हिन्दू राजा मिलते हैं, जिन्होंने आक्रामकों का हर प्रकार से भरपूर विरोध किया।’’ इसके अलावा विभिन्न ब्रिटिश विद्वानों ने अपने शोधों में इस जगह पर स्थित शिलालेखों पर संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में वाग्देवी, व्याकरणिक नियम इत्यादि पर लिखित जानकारी होने का वर्णन किया है। धार के शिक्षा अधीक्षक श्री के.के. लेले जी ने भी एक ऐसे शिलालेख की ओर ध्यान आकर्षित किया, जिसमें प्राकृत में छंदों की एक विस्तृत श्रंखला थी। इन्हें पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि ये छंद भगवान विष्णु के ‘कूर्म अवतार’ की प्रशंसा में लिखे गए हैं। इसके अलावा उन्होंने एक अन्य शिलालेख भी पाया, जो कि राजगुरु मदन द्वारा रचित ‘विजयश्रीनाटिका’ नामक एक कृति का हिस्सा है। राजा अर्जुनवर्मन के उपदेशक मदन ने ‘बालसरस्वती’ की उपाधि धारण की थी। शिलालेख से पता चलता है कि शिलालेख पर उत्कीर्ण नाटिका का प्रदर्शन राजा अर्जुनवर्मन के सामने एक सरस्वती मंदिर में किया गया था। इससे पता चलता है कि यह शिलालेख किसी सरस्वती मंदिर के स्थल से लाया गया होगा, जो कि धार स्थित भोजशाला के सिवाय कोई नहीं हो सकता। यह शिलालेख वर्तमान में मस्जिद की रीवाक में प्रदर्शित है। (स्रोत: विकीपिडिया/‘हिस्ट्री ऑफ मालवा’ किताब)
धार स्थित यह स्थल भोजशाला ही है, इसके प्रमाण में कुछ अन्य तथ्य निम्नांकित हैं-
- मंदिर एवं आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त शिलालेखों पर संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में रचनाऍं मंदिर या हिन्दू स्थल होने के लिखित प्रमाण हैं।
- शिलालेखों पर मॉं वाग्देवी एवं राजा भोज से संबंधित विवरण।
- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार यह शिलालेख 11वीं एवं 12वीं शताब्दी के हैं, जब यहॉं हिन्दू राजाओं का शासन हुआ करता था।
- मंदिर की खुदाई के दौरान वाग्देवी की प्रतिमा का मिलना भी एक अकाट्य प्रमाण है कि यह हिन्दुओं का प्राचीन मंदिर या भोजशाला है।
- मंदिर की दीवारों एवं खंभों पर पुष्प एवं देवताओं की आकृतियों का मिलना।
- इसी के साथ ही दीवारों एवं खंभों पर सिंह, कछुआ एवं वराह या सूअर (जिसे इस्लाम में हराम माना जाता है) आदि आकृतियों का प्राप्त होना। अगर यह मस्जिद होती, तो इस तरह की आकृतियॉं नहीं बनी होतीं।
- मंदिर की छत पर श्रीयंत्र के समान आकृति का डिज़ाइन इसके हिन्दू कलाशिल्प होने का प्रमाण है।
राजा भोज का इतिहास एवं आर्किटेक्ट ज्ञान:-
इन्दौर संभाग स्थित धार नगर, इन्दौर मुख्यालय से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित है। परमारों ने मालवा एवं आसपास के क्षेत्रों में लगभग 400 वर्षों तक शासन किया। परमारों के शासन काल के दौरान भारत ने ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में उन्नति के नये प्रतिमान स्थापित किये थे। राजा भोज स्वयं भी एक अध्ययनशील, विद्वान, असाधारण मनीषी, शास्त्रज्ञ एवं अनुसंधानकर्ता व्यक्ति थे। राजा भोज न केवल अच्छे शासक थे, बल्कि एक बेहतरीन निर्माता (आर्किटेक्ट) के साथ-साथ एक कुशल लेखक भी थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग 84 मौलिक ग्रंथों की रचना की थी। आश्चर्य की बात यह है कि यह सभी ग्रंथ राजा भोज ने नितांत ही अलग-अलग विषयों पर लिखे हैं, जिनमें से कुछ मुख्य विषय – धर्म, आयुर्वेद, विज्ञान (खगोल/अंतरिक्ष-शास्त्र), शिल्पकला, ज्योतिष-शास्त्र, वास्तु-शास्त्र, काव्य-शास्त्र, नाट्य-शास्त्र, राजनीति-शास्त्र, दर्शन-शास्त्र एवं संगीत आदि हैं। उनके प्रमुख ग्रंथों में ‘राजमार्तण्ड’, ‘सिद्धांत संग्रह’, ‘भोजचंपू’, ‘विद्या विनोद’, ‘समरांगण सूत्रधार’ इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इसमें से ‘समरांगण सूत्रधार’ प्राचीन शिल्पकला पर आधारित है, वहीं ‘राजमार्तण्ड’ ग्रंथ महर्षि पतंजलि के योग सूत्रों की व्याख्या करता है। एक ही जीवन में इतनी विधाओं या विषयों पर अपना अधिकार रखने वाला व्यक्ति साधारण हो ही नहीं सकता, इसलिए राजा भोज के व्यक्तित्व की ऊँचाई का अनुमान लगाने के लिए हमें उनके व्यक्तित्व के साथ-साथ कृतित्व को भी समझना होगा।
राजा भोज के व्यक्तित्व का यूँ तो हर पहलू ही हमें आश्चर्यचकित और प्रभावित करता है, मगर उनके द्वारा रचे गये ग्रंथों के अलावा उनका आर्किटेक्चरल ज्ञान हमें विस्मित और हैरान कर देने वाला है। अपने शासनकाल के दौरान राजा भोज ने अनेकों विश्वविद्यालय, मंदिर (विशेष रूप से ‘भोजपुर’ जैसे शिव मंदिर), वेधशाला, बॉंध आदि का निर्माण करवाया। उनका जल-प्रबंधन तो इतना कमाल का रहा है कि उन्होंने अपनी मॉं की प्रतिज्ञा के अनुपालन के लिए उन्होंने एक क्षेत्र (जिसे अब भोजपुर / भोपाल – ‘भोजपाल’ का अपभ्रंश, के नाम से जाना जाता है) में नौ नदियों और अठ्ठानबे धाराओं के प्रवाह को टीलों पर रोक कर वहॉं पर एक अद्भुत बॉंध (डैम) का निर्माण किया, जिससे पूरा क्षेत्र ही एक झील में परिवर्तित होकर हरियाली से परिपूर्ण हो गया था। आप सोचिये कि प्राचीन काल में भी भारत के पास ज्ञान, परंपरा और संसाधनों की कितनी प्रचुरता रही होगी, क्योंकि इतना विशाल डैम बनाने में आज के स्ट्रक्चरल इंजीनियर्स और आर्किटेक्ट्स भी चकरा जाऍंगे। मगर फिर भी यह आपको भारत के किसी भी इंजीनियरिंग कॉलेज अथवा यूनिवर्सिटी में इस गौरवशाली इतिहास एवं तथ्यपूर्ण जानकारी को नहीं पढ़ पाऍंगे, क्योंकि हमारे यहॉं के तथाकथित इतिहासकारों या लेखकों ने कभी भारतीय ज्ञान परंपरा के गौरवशाली इतिहास को जानने और समझने की कोशिश ही नहीं की। यह राजा भोज की प्रबंधकीय-अभियांत्रिकी क्षमता एवं दूरदर्शिता ही है कि भोपाल को तालों की नगरी के रूप में जाना जाता है। अगर आप आज भी भोपाल के भ्रमण करें, तो आप इस विशाल डैम के अलग-अलग रूप में इसके अवशेषों को देख सकते हैं, अलग-अलग इसलिए, क्योंकि इसके बड़े भाग को मुगल शासकों ने तबाह कर दिया था। इसके अलावा लगातार बढ़ते शहरीकरण और पानी के अंधाधुंध उपयोग ने बॉंध की ज़मीनों पर मानवीय बसाहट भी कर दी है।
हमें आशा है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अपनी जॉंच निष्पक्ष होकर करेगा और भोजशाला में पुन: हिन्दुओं का अधिकार होगा। हिन्दुओं के अधिकार में आने से एक तो इस स्थल की देखभाल अच्छी तरह से होगी, दूसरा हिन्दू इस दिशा में बेरोकटोक शोध कार्य कर पाऍंगे, जिससे हमारे गौरवशाली इतिहास के अनछुए-अनकहे पहलू सामने आऍंगे। हिन्दुओं के अलावा केन्द्र एवं राज्य सरकारों को भी हिन्दुओं के स्थलों को हस्तांतरित करने की जवाबदेही लेनी चाहिए। हिन्दुओं के इस देश में हिन्दू को अब दोयम दर्जे का नागरिक होना स्वीकार नहीं है, क्योंकि अब धीरे-धीरे हिन्दू स्वाभिमान लौट रहा है। यह देखना सुखद है कि यह एक तरह से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का दौर भी है।
– दुर्गेश कुमार साध