वेदों के क्लिष्ट सिद्धांत जब सरलीकृत हुए, तो वह पुराणों की कथाओं के रूप में बह निकले । और जब यह पुराण लोक व्यवहार में उतरे, तो लोक परंपराओं में रच और बस गए । गणगौर पर्व भी ऐसी ही एक अद्भुत लोक परंपरा है, जो निमाड़ क्षेत्र में उत्साह के साथ मनाई जाती है । गणगौर में "गण" अर्थात लोक और "गौर" अर्थात गौरी,माता पार्वती या सखी होता है। जब लोक मानस "गणगौर" कहता है तो वह गणों की माता, प्रकृति की अधिष्ठात्री, माता पार्वती ही होती हैं। निमाड़ का लोक मानस इन आद्यशक्ति, प्रकृति स्वरूपा मां पार्वती का पूजन, गणगौर बाई के सरलतम रूप में करता है ।
प्रकृति पूजन के रूप में गणगौर पर्व का सौंदर्य अप्रतिम रूप से प्रकट होता है । पर्व के प्रारंभ में अलग-अलग घरों से पहुंचाए गए गेहूं के द्वारा जवारों को बोया जाता है । छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी डालकर, उसमें गेहूं अंकुरित किए जाते हैं । टोकरी में उगे हुए गेहूं के इन्हीं पौधों को जवारा कहा जाता है । इन्हीं जवारों को माता का स्वरूप मान, पूजन किया जाता है। जवारों का स्त्री स्वरूप में श्रृंगार कर शोभायात्राएं भी निकाली जाती है ।
चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल तृतीया तक मनाए जाने वाले इस पर्व के दौरान ही चैत्र नवरात्रि का भी प्रारंभ होता है। चैत्र नवरात्रि स्वाभाविक रूप से आद्यशक्ति मां दुर्गा की उपासना के नौ दिवस होते हैं । निमाड़ क्षेत्र के इस पर्व में भी लोक परंपरा के अनुसार प्रकृति स्वरूप में मां शक्ति की ही पूजा की जाती है। यह सनातन संस्कृति में लोक और शास्त्र के अद्भूत सामंजस्य का उदाहरण है ।
गणगौर के इस पर्व के दौरान, माता बहने निमाड़ी बोली में मीठे-मीठे गीत गाती हैं। इन गीतों में रणुबाई और धनिहार जी का बार-बार उल्लेख होता है । रणुबाई और धनिहार जी में भी भगवान शंकर और पार्वती ही प्रतिबिंबित होते हैं । इन गीतों में माता का आवाहन छुपा है, तो उनकी उपासना भी, लोकभाषा निमाड़ी में रचे गीतों से ही की जाती है ।
चैत्र कृष्ण तृतीया को जब इन जवारों को माता के रूप में सजाकर पाट पर बैठाया जाता है, तो उनकी शोभा देखते ही बनती है । घर - घर, ग्राम- ग्राम में माता बहनें, बड़े उत्साह के साथ इन रथों को अपने सर पर रखकर, उमंग के साथ माता की शोभा यात्रा निकालती हैं। गणगौर पर्व पर लोक आस्था का प्रवाह देखते ही बनता है । आध्यात्मिक रस में डूबे लोग जब गणगौर माता को अपना शीश नमाते हैं, तो लोक भाषा निमाड़ी के सरलतम गीत भी, वेदों की ऋचाओं का रूप ले लेते हैं । गणगौर पर्व, प्रकृति की पूजा का विलक्षण अधिष्ठान है, जो लोकमानस को ईश्वरीय चैतन्य से जोड़ देता है ।
चैत्र शुक्ल चतुर्थी को मातृ स्वरूप जवारों का, पवित्र जल में विसर्जन कर दिया जाता है । इसी के साथ यह पर्व संपन्न हो जाता है।
- पीयूष शर्मा