झाबुआ : पति की होमगार्ड की नौकरी छूटी, गृहस्थी चलाना मुश्किल | लेकिन हार नहीं मानीं झाबुआ के परमार दंपती ने | 1993 में झाबुआ में ही वनवासी गुड़िया बनाने का प्रशिक्षण लिया | 6 महीने में काम सीख लिया, लेकिन गुड़िया बनाने के लिए सामग्री खरीदने के लिए रूपए नहीं थे | कपड़ों सहित अन्य चीजें महंगी आती है, तब इसका विकल्प तलाशा और टेलर के यहाँ डेढ़ रूपए किलो के हिसाब से कतरन खरीदी | इन्हीं से गुड़िया बनाकर शहर में बेचकर परिवार का पोषण किया | सबसे पहले गुड़िया बनाने की शुरुआत तुहर की लकड़ियों पर की, क्रॉस के रूप में बांधकर इसे कपड़े पहनाते थे | इसी तरह शहर – शहर जाकर प्रदर्शनी लगानी शुरू की और लोगों को गुड़िया काफी पसंद आई | अभी भोपाल से अलग मुंबई, अहमदाबाद से भी गुड़िया के लिए ऑर्डर आ रहे है झाबुआ में करीब 30 परिवार वनवासी गुड़िया बना रहे है और अपना जीवन यापन कर रहे है |
झाबुआ के रातीतलाई निवासी परमार दंपती रमेश और शांति बताते हैं – 25 जनवरी 2023 की रात ताउम्र नहीं भूल पाएंगे। जब देर रात 10.30 बजे फोन आया, सामने वाले व्यक्ति ने पूछा, आप रमेश जी बोल रहे हैं, मैंने जवाब में हां कहा। उन्होंने खुद को दिल्ली का अफसर बताते हुए कहा, ‘आपका और आपकी पत्नी शांति का नाम पद्मश्री के लिए चयनित हुआ है |
वनवासी गुड़िया बनाने के इस काम से जुड़े हुए सुभाष गिदवानी बताते हैं, करीब 60 साल पहले उस दौरान झाबुआ में ही ट्राइबल विभाग में महाराष्ट्र की दो महिलाएं पदस्थ थीं | उन्होंने आदिवासियों को रोजगार मुहैया कराने के लिए गुड़िया बनाने का प्रशिक्षण देना शुरू किया। इसके बाद धीरे-धीरे वनवासी लोग इससे जुड़ने लगे। करीब 15 साल पहले प्रशिक्षण केंद्र बंद हो गया। पर गुड़िया बनाने का काम नहीं रुका। यहां की बनी वनवासी गुड़िया की मांग अब देश और शहरों में है |