संजा पर्व के साथ मौन हो रही लोक सभ्यता

लेखक – हर्ष नागर

अनंत चतुर्दशी के बाद आने वाले उन दिनों में, जब मालवा और निमाड़ की गलियों में मिट्टी के दीयों की धुंधली रोशनी से सजी दीवारों पर,गोबर से बनी आकृतियां नजर आती थीं, तब लगता था मानो हमारी सांस्कृतिक आत्मा स्वयं बोल रही हो। आज वे दीवारें खामोश हैं, और उनकी खामोशी हमारी एक पूरी सभ्यता के मौन होने की गवाही देती है।

संजा केवल एक लोकपर्व तक सीमित न होकर, हमारे समाज की सामूहिकता की जीवंत अभिव्यक्ति थी जो पीढ़ियों को एक सूत्र में बांधने का पुनीत माध्यम भी बनी। इसकी जड़ें मध्यकालीन भारत से जुड़ी हैं, अश्विन माह में शुक्लपक्ष की पड़वा से शुरू होकर कृष्णपक्ष की अमावस्या तक अनवरत श्राद्ध के सोलह दिनों तक बनने वाली इस लोककृति का उत्सर्जन मालवा निमाड़ छेत्र से माना जाता है,कहीं इसे माँ दुर्गा के प्रतीकात्मक रूप में देखा जाता है तो कहीं ब्रह्मपुत्री संध्या के स्वरूप में, किंवदंतियों के अनुसार पहली बार संजा का व्रत श्री किशोरी राधारानी ने रखा था और मालवा-निमाड़ के ग्रामीण अंचल में यह परंपरा राजपूत और मराठा काल में चतुर्दिशा में प्रचलित हुई । कहते हैं कि पुरातन शासनकाल में इंदौर के शाही महलों से लेकर दूर-दराज के गांवों की लीपी हुई झोपड़ियों तक, हर जगह संजा के दीप एक साथ जलते थे, लगता था मानो पूरा मालवा एक ही सांस्कृतिक लय में थिरक रहा हो क्यूंकि इस लोकपर्व में कला, आध्यात्म, सामाजिकता,समरसता और शिक्षा का अनूठा संगम था।

जब किशोरियां एक साथ बैठकर दीवारों पर गोधूली से देवी-देवताओं की आकृतियां उकेरती थीं, तो उनकी यह सहज अभिव्यक्ति केवल कलाकारी रहीं थीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों का भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षण भी था।

इस परिपाटी में हमारे समाज का वह ज्ञान तंत्र भी समाहित था जहां बिना किसी औपचारिक शिक्षा के बुजुर्ग महिलाएं युवतियों को जीवन के गूढ़ सत्य सिखाती थीं। लोकगीतों के माध्यम से इतिहास, पुराण, नैतिकता और जीवन-दर्शन की शिक्षा मिलती थी। यह पर्व हमारी सभ्यता के संस्कारों का अनौपचारिक विश्वविद्यालय ही था , जहां आनंद और आस्था की धारा “संजा तू थारा घर जा” जैसे गीत, कभी रेवड़ी तो कभी परमल जैसी प्रसाद और गोबर पर चिपके गेंदे-गुलाब के आकार में निरंतर प्रवाहमान रहती थी।

किंतु आज हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां तकनीकी प्रगति के नाम पर हमने अपनी जड़ों को ही काट दिया है। शहरीकरण की अंधी दौड़ में, अपार्टमेंट्स की ऊंची दीवारें हमारे बीच खड़ी हो गईं, अब ना तो वे कवेलु के घर है और ना गोबर की लिपाई, आधुनिकता की इस अंधी दौड़ ने न केवल भौगोलिक दूरी बनाई, बल्कि मानसिक और भावनात्मक अलगाव भी पैदा कर दिया है ।बचपन की स्मृतिया टटोलने पर मैं पाता हूँ कि हमारे पुराने चद्दर वाले घर में सोंधी गंध समेटे मिट्टी की कच्ची दीवार पर जब दीदी बड़े चाव से संजा बनाती, तब नवरात्रि से पूर्व गरबा अभ्यास करने जाने वाली उनकी सखिया भी बड़े स्नेह से गीत गीत में चटबदली करती थी।उस समय इस पर्व में इतना आनंद शायद इसलिए भी था क्यूंकि लड़कियों को तब गोबर से दुर्गंध नहीं आती थी ।

डिजिटल क्रांति ने स्थिति को और भी जटिल बना दिया है। आज की युवा पीढ़ी वर्चुअल रियलिटी और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस में खोई रहती है, जहां तत्काल संतुष्टि की संस्कृति हावी है।संजा जैसी परंपराएं, जिनमें धैर्य, सहजता और सामूहिक सहयोग की आवश्यकता होती है, उन्हें आज ‘पुरानी’ और ‘अप्रासंगिक’ माना जा रहा है।

वर्तमान में सबसे गंभीर चुनौती है पारिवारिक संरचना का विघटन। संयुक्त परिवार प्रथा के टूटने के साथ ही लोककला स्थानांतरण की वह श्रृंखला भी टूट सी गई, जो हजारों वर्षों से अटूट थी। आज की कई माताएं स्वयं इन परंपराओं से अवगत नहीं हैं, तो वे अपनी बेटियों को क्या सिखाएंगी? हम इसे इस तरह भी देख सकते है की जेन ज़ी ने मिलेनियल से इसे सीखा तो पर जेन अल्फा को सीखा ना सके।

इस दुविधा से निकलने का मार्ग असंभव नहीं है, बशर्ते हमे गंभीरता से प्रयास करना होगा । सबसे महत्वपूर्ण है सामाजिक परिचर्चा में स्थानीय सांस्कृतिक परंपराओं को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल करना।क्यूंकि लोककला का संदर्भ केवल पुस्तकीय ज्ञान में नहीं, बल्कि व्यावहारिक अनुकरण और क्रियान्वयन से है।

ग्राम सभाओ में ‘सांस्कृतिक पुनर्जागरण अभियान’ चलाकर अगर नवरात्रि मंडल के कार्यकर्ता भी इस काम को हाथ में ले तो समुचित प्रचार संभव है । सामुदायिक केंद्रों में इन परंपराओं के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने के साथ सोशल मीडिया की शक्ति का सदुपयोग करते हुए इन परंपराओं को आकर्षक और समसामयिक रूप में प्रस्तुत करना ही इसे विलुप्त होने से बचाने का एक सार्थक मार्ग है।

सारी बातो के बीच सबसे महत्वपूर्ण है हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन। हमें समझना होगा कि सांस्कृतिक परंपराएं केवल अतीत की स्मृतियां नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाली हमारी सामूहिक चेतना का प्रतिबिंब भी है।

संजा की बुझती रोशनी को फिर से जलाना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।
यदि आज हमने इसे नहीं बचाया, तो कल हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए यह पर्व मात्र इतिहास बन कर रह जाएगा। जैसे अहिल्याबाई के समय में यह परंपरा महलों से गरीब घरों तक पहुंची थी, वैसे ही आज हमें भी इसे डिजिटल युग के अनुकूल बनाकर हर घर तक पहुंचाना होगा। समग्र समाज के पास समय अभी भी है, बस संकल्प और सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।

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