इस वर्ष के प्रारंभ में यह विचार बना था कि इस वर्ष लिखना कम है पढ़ना अधिक है, बोलना कम है सुनना अधिक है । इसी विचार के तहत जनवरी में कई यादगार कार्यक्रम सुनने को मिले, श्रोता बनकर पीछे कहीं भी, किसी एक कोने में बैठ कर चुपचाप सुनने का अपना सुख है । इसी के चलते नर्मदा साहित्य संगम के चतुर्थ वर्ष यह साहित्यिक आयोजन इंदौर में आयोजित हुआ दिनांक 31 जनवरी से 2 फरवरी तक, सभी सत्रों में उपस्थिति तो नहीं रही किंतु जितने भी सत्र सुने, अद्भुत वागमिता, प्रखर बुद्धि, सुदीर्घ अध्ययन और ज़मीनी अनुभव से उपजे ऐसे धारा प्रवाह वक्तव्य, बहुत अरसे बाद सुने, एक बौद्धिक भूख, एक प्यास बहुत समय से थी जो इन वक्तव्यों से पूरी हुई ।
सबसे अच्छी बात यह थी कि मंच पर कोई भी लेखक या साहित्यकार नहीं थे । न वहां स्वयं की वाहवाही थी, न अपनी ही किताब का अपनों के द्वारा महिमा मंडन था, न आत्म मुग्ध हो अपनी ही पुस्तक पर लहालोट बातचीत, न किसी सेलिब्रिटी सिंड्रोम से ग्रस्त कोई ग्लैमर था, न कोई दिखावा, न कोई लटक झटक न ही अहंकार, न बड़े होने का कोई अहंकार, न छोटों के प्रति कोई हेय भाव ।
वे विशुद्ध वक्ता थे, बरसों से चुपचाप अपने अपने क्षेत्रों में परिवर्तन लाने का प्रयास करते, जनमानस की पीड़ा उनका मनोविज्ञान समझने वाले, लोक से जुड़े, अध्ययनरत विद्वान, जिन्हें अपनी विद्वता का आभास तक नहीं, क्या वेद,क्या पुराण, क्या इतिहास, क्या जियो पॉलिटिक्स, क्या अर्थशास्त्र, क्या राजनीति, क्या साहित्य, क्या पर्यावरण, क्या समाज विज्ञान, क्या अध्यात्म और क्या भारतीय ज्ञान परंपरा, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिनपर उनकी बहुत मजबूत पकड़ न हो । वे बरसों से जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले जीवन से जुड़े अध्येता हैं ।
जिन तथाकथित बड़े लिट फेस्ट में कोई एंट्री फीस न होने पर भी सौ दो सौ से ज्यादा लोग नहीं जुटते, उनमें भी आधे अपनी पुस्तक पर बात करने वाले, आधे रचना पाठ वाले आधे सम्मानित होने वाले होते हैं, वहीं एक पेड पंजीयन पर सभागार का खचाखच भरा होना और बहुत जरूरी काम होने पर भी एक मिनट के लिए वहां से उठने का मन न हो तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वैचारिक सत्रों का स्तर क्या रहा होगा ।
जिस अकादमिक विमर्श पर वामपंथ का दबदबा माना जाता रहा है, मैं आज पूरी जिम्मेदारी से यह कहना चाहती हूं कि दक्षिणपंथ पूरी तैयारी के साथ सामने है और अकादमिक विमर्श या उनके एकेडमिक डिस्कोर्स पर वामपंथ के एकाधिकार को बड़ी चुनौती मिलने लगी है । वामपंथ के विमर्श से लड़ने का एक ही तरीका है खूब पढ़ा जाए और उन पुस्तकों को तो अवश्य पढ़ा जाए जिन्हें ये बार बार कोट करते हैं, तो संदर्भ से काटकर परोसे हुए बहुत से झूठ आपके सामने होते हैं, बहुत बहुत पढ़ा जा रहा है और बहुत प्रश्न उठाए जा रहे हैं ।
जो समझते थे या समझते हैं कि हमने ही केवल किताबें पढ़ी हैं अब उनके सामने एक पूरा का पूरा पढ़ा लिखा प्रतिरोध तैयार है जो बहुत पढ़ा लिखा है, बहुत अध्ययन है और लोक से जुड़ा हुआ है । अब जब वे प्रश्न करने लगेंगे तो किसी के पास उत्तर नहीं होगा । वे ये कार्य बहुत शांति से कर रहे हैं, उनमें से अनेक चेहरे किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दिखाई नहीं देते, आप अपनी बौद्धिक जुगाली करते रहिए सोशल मीडिया पर, वे चुपके से आपके नीचे की ज़मीन खसका चुके हैं । उन्हें नाम की भूख नहीं है इसलिए जिन मंचों पर आप इठलाते फिरते हैं उनकी तरफ ये देखते ही नहीं, उनका मंच तो पूरा मानव समाज और उसका मन है तो छोटे मंच को लेकर वे क्या करेंगे, छोड़ दिया है उन्होंने वह आपके लिए ।
उन्होंने लोक के मन को छुआ है, उनके मनोविज्ञान को समझा है, वे सरल होकर लोक में घुलमिल जाते हैं, उनकी बौद्धिकता आतंकित नहीं करती अपने से जोड़ लेती है । एक विशेष विचार सरणी ने बौद्धिक आतंक फैलाया है और अपने से इतर विचार को अस्पृश्य बनाया है, आज एक बात बड़ी अच्छी कही, जिस तरह सामाजिक अस्पृश्यता घातक है उसी तरह साहित्यिक अस्पृश्यता भी घातक है, इसलिए हर विचार को स्वीकार किया जाना चाहिए ।
वे जो अपने आपको उदार, मानवता वादी, सहिष्णु, समाजवादी कहते थे वे बहुत अधिक असहिष्णु हैं अपने से इतर विचार को स्वीकृति देने में ।
और जिन्हें आपने असहिष्णु कहा वे बहुत उदार हैं अपनी कार्यशैली में ।
डॉ गरिमा संजय दुबे
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