
स्वतंत्र भारत के निर्माण के लिए जो कारण मील का पत्थर साबित हुआ अर्थात् अंग्रेजो की जो दमनकारी शोषण की प्रवृत्ति थी उसने संपूर्ण समाज को संगठित कर शोषण से लड़ने के लिए संघर्ष करने के लिए समाज को एक इकाई के रूप में खड़ा करने का कार्य किया था और उसी सामुहिक शक्ति के प्रयास के कारण अंग्रेजो के शोषण से समाज को मुक्ति मिली, भारत माता दास्तां के बंधनों से मुक्त हुई है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्र की व्यवस्था परिवर्तन के लिये कई प्रकार की चुनौतीयां समाज एवं राष्ट्र के समक्ष विद्यमान थी उन चुनौतियों को पार कर व्यवस्था भारत के अनुकूल बनाने के लिये राष्ट्र के जिन कर्णधारों के कंधो पर इसका भार था, उन्होने प्रयास तो किये किन्तु उन प्रयासों का सार्थक परिणाम नहीं निकल पाया और जो व्यवस्था हम राष्ट्रानुकूल बनाने चाहते थे वह व्यवस्था आजादी के 78 वर्ष के बाद भी नंगण्य है। हम आज भी व्यवस्था परिवर्तन के लिये संघर्ष कर रहे है या व्यवस्था से जूझ रहे है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के इन 7 दशको से अधिक समय के बाद भी हम व्यवस्था का निर्माण नही कर पा रहे है। आज वर्तमान समय में जो व्यवस्था समाज एवं राष्ट्र में विद्यमान है उस व्यवस्था से सबसे अधिक कोई वर्ग प्रभावित है तो वह केवल और केवल ग्राहक अर्थात् आम आदमी, इस आम आदमी के विकास के कई दावे इन 7 दशको में किये गये, किन्तु वे सभी दावे एवं वादे खोखले साबित होकर मात्र दीवास्वप्न बनकर रह गये।
आजादी प्राप्ति के 78 वर्षों बाद भी ग्राहको के अनुकूल व्यवस्था नहीं होने के कारण ग्राहको के साथ लूट-घसौंट, शोषण की प्रवृत्ति बड़ी है, और इस प्रवृत्ति के कारण समाज में भ्रष्टाचार भी बड़ा है और जिस प्रकार से आज आर्थिक क्षेत्र की नीतियां बनाई जा रही है उससे तो यही प्रतीत होता है कि संपूर्ण व्यवस्था ही आज समाज को लूटने में लगी हुई है, हर कोई भ्रष्टाचार रूपी इस व्यवस्था की गंगोत्री में डुबकी लगाना चाहता है। अर्थात् हर कोई अवसर मिलने पर समाज को लूटना चाहता है।
वर्तमान समय में अर्थ नीति जिनको ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिये, उस ग्राहक समुदायी की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों को आर्थिक लाभ पहुँचाने के लिये उनके अनुसार लाभ पहुँचाने के लिये उनके अनुसार अर्थ नीति का निर्माण किया जाता है उस अर्थ नीति के कारण आज केवल लाभान्वित है तो वह केवल व केवल औद्योगिक राजघराने वर्तमान समय में निर्मित अर्थ नीति को जो ग्राहको के लिये बनाई जा रही है इस नीति को अगर अनर्थ नीति कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि इस नीति से समाज का आम नागरिक खुद को ठगा सा महसूस करता है और इस नीति के कारण ही दिन प्रति दिन समाज में शोषणकारी शक्तियां ताड़क के कद की तरह बढ़ रही है।
शोषणकारी इस व्यवस्था के कारण आज समाज में असमानता की खाई बनती जा रही है देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाला बहुसंख्यक वर्ग ग्राहक इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता जा रहा है और शोषणकारी शक्तियां सर्वोच्च शिखर की ओर बढ़ रही है। इस असमानता के कारण समाज में कई समस्या जन्म ले रही है और उन समस्याओं के कारण आज इतने वर्षों के बाद भी हम विकसित नही विकासशील राष्ट्र की श्रेणी में ही खड़े है, यदि हमे विकसित राष्ट्र की श्रेणी में अपने आप को स्थापित करना है तो ग्राहक शक्ति को अपने स्वः का ऐहसास होना आवश्यक है।
अर्थ व्यवस्था स्थायित्व प्रदान करने में ग्राहको की बढ़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन ग्राहको में जागरूकता के आभाव में उसे निरंतर लूटा जा रहा है, ठगा जा रहा है, उसे लूटने के लिये नित्य नवीन उपाय खोजे जा रहे है, कभी जीवन उपयोगी वस्तुओं के दामों में वृद्धि करके, कभी पेट्रोलियम पदार्थो की बढ़ोत्तरी करके, कभी त्यौहारो के मौसम में मिलावटखोरी करके, कभी वस्तुओं के दाम में डब्बे और पैकिंग पदार्थो को तौलकर, कभी उसे स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर, कभी छद्म व्यवसाय के नाम पर निरंतर उसे शोषणकारी शक्तियों के द्वारा शोषित किया जा रहा है और जागरूकता के आभाव में ग्राहक शोषित होता जा रहा है।
ग्राहको को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिये उनके हितों और अधिकारों का संरक्षण करने के लिये कोई समुचित प्रावधान अथवा अधिनियम नहीं होने के कारण भी शोषण की यह प्रवृत्ति बढ़ी है, किन्तु 1986 में उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखकर पारित किया गया अधिनियम उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भी महज अधिनियम बनकर रह गया कोई क्रांतिकारी परिवर्तन अथवा बदलाव इस अधिनियम के कारण व्यवस्था में देखने को नहीं मिले है, इस अधिनियम के पारित होने के बाद भी इनते वर्षों में कोई बदलती तस्वीर नही दिखी है, वर्तमान समय में व्यवस्था का चित्र कैसा है हम सब बेहतर तरीके से परिचित है।
ग्राहको के साथ हो रही लूट को रोकने के लिये सन् 1986 में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के पारित होने के साथ ही उपभोक्ताओं के साथ लूट-घसौट करने उन्हें शोषित करने के तरीको में भी परिवर्तन किया जा रहा है। अब ग्राहको को भ्रमित करने के लिये उसे भ्रामक विज्ञापनो के माध्यम से अपने जाल में फंसाया जा रहा है यह भारतीय समाज की विंडम्बना ही है की यहाँ व्यक्ति किसी पर भी बहुत ही जल्दी विश्वास कर लेता है वह जिसे अपना आर्दश मानता है। वही आर्दशवादी व्यक्ति ऐसे भ्रामक विज्ञापनो को पर्दे पर दिखाने के लिये उत्पादित वस्तुओं का विज्ञापन करता है, चाहे उसका उपयोग उसके द्वारा किया जा रहा हो या नही, उसे तो बस मेहनताने के रूप में मिलने वाली मोटी रकम से मतलब होता है और उपभोक्ता भी ऐसी वस्तुओं की गुणवत्ता एवं उपयोगिता पर विचार किये बिना उसका उपयोग व उपभोग करना प्रारंभ कर देता है, यहाँ ग्राहकों को समझने की आवश्यकता है कि वह किस दिशा में जा रहे है।
उपभोक्ताओं के साथ लूट-खसौट करने में निजी क्षेत्र के व्यापारिक संस्थान ही नही है बल्कि अब सरकारें भी ग्राहको का शोषण करने में लगी हुई है, मूलभूत सेवाओं को जनता को उपलब्ध कराने का दायित्व जिन सरकारो पर था वह सरकारें अब सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर उन सेवाओं का निजीकरण कर रही हैं, निजीकरण के नाम पर मनमाफिक शुल्क उपभोक्ताओं से वसूला जा रहा है और शुल्क नही चुकाने की दशा में उस सेवा से उपभोक्ता को वंचित तक कर दिया जाता है। अब उपभोक्ताओं के पास मूल्य चुकाने के अलावा अन्य कोई मार्ग नही बचता, यह व्यवस्था मरता क्या नही करता की कहावत को चरितार्थ करती है। वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था में उपभोक्ता चहुँ ओर से घिर गया है उसकी स्थिति ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार महाभारत में कौरवो द्वारा रचित चक्रव्यूह में फॅसने में अभिमन्यु की थी। जिस तरह अभिमन्यु चक्रव्यूह को सेंदकर अंदर जाना जानता था।
लेकिन चक्रव्यूह के बाहर आना नहीं जानता था, ठीक वैसा ही आज ग्राहक इस शोषणकारी व्यवस्था में फंसा हुआ है। वह निश्चय नही कर पा रहा है कि सही क्या है और गलत क्या है, क्योंकि उसके सामने ऐसी भ्रमपूर्ण स्थिति बाजारवाद के कारण निर्मित कर दी गई है।
शोषणकारी व्यवस्था को रोककर शोषणमुक्त समाज के निर्माण में उपभोक्ताओं की बढ़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। आवश्यकता केवल पूर्ण कर्तव्यनिष्ठा के साथ अपनी भूमिका का निवर्हन करने की है, उपभोक्ताओं को जागरूक होना पड़ेगा। अगर हम जागृत होकर सही भूमिका निभायेंगे तो शोषणकारी व्यवस्था पर अंकुश लगाया जा सकता है, उपभोक्ता केवल उन्ही वस्तुओं का उपयोग करें जिनकी वास्तविक आवश्यकता उसे है। अनुपयोगी वस्तुओं के उपभोग पर संयम रखने से शोषणकर्ताओं पर भी लगाम कसी जा सकती है।
भोगवादी व्यवस्था को त्यागकर उपभोगवादी संस्कृति को अपनाकर भी हम समाज को शोषण से बचा सकते है यदि हम चाहते है कि शोषणमुक्त समाज का निर्माण हो तो संगठित होकर अपनी भूमिका का उचित निवर्हन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर उपभोक्ता कोई निर्णय ले ताकि शोषणमुक्त व्यवस्था का निर्माण कर शोषणमुक्त समाज की स्थापना की जा सकें।
निलेश कौशल अधिवक्ता
प्रांत कार्यकारिणी सदस्य
अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत मालवा प्रांत