छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य का आदर्श स्थापित कर लोक कल्याणकरी राज्य की नींव रखी। इन्हीं मराठा मावलो ने अटक तक (वर्तमान में पाकिस्तानी शहर) स्वराज्य व स्वधर्म की रक्षा हेतु अथक प्रयास सतत जारी रखे। इसवी सन् 1600 से 1900 तक मराठा शासको का यह समय भारतीय तीर्थ क्षेत्रों के जिर्णोद्धार का स्वर्णकाल माना जाता है।
इस 300 वर्ष के संघर्ष को इतिहास को दृष्टि में सुवर्ण काल क्यों माना गया इसे जानने के लिए परधर्मियों के नृशंस अत्याचार और हमारे मन्दिरों स्मारको और गुरूकुलों का विनाशकारी विध्वन्स को भी जानना आवश्यक है।
आर्यधर्म और हिन्दू संस्कृति ईसा पूर्व 4000 वर्ष पहले स्थापित हुई है। आज से लगभग 6 हजार वर्ष पूर्व हमारे पवित्र वेदों का निर्माण हुआ, आगे रामायण, महाभारत और स्मृति पुराणों के आधार पर आर्य धर्म की मजबुत नींव स्थापित हुई। किन्तु कालांतर में अनेक कारणों से आर्य धर्म संस्कृति और स्वराज्य का क्षय होता चला गया। आठवी सदी में इस पवित्र भारतीय धरा पर परधर्मियों का प्रवेश हुआ और आगे तीन सौ वर्षों में परधर्मियों का राज्य स्थापित हुआ। इसवी सन् 1004 नवम्बर में अफगानी सुल्तान मोहम्मद गजनवी ने अपनी विशाल सेना लेकर पेशावर के मैदान में पड़ाव डाला। 27 नवम्बर 1004 को लाहौर नरेश जयपाल सिंधु नदी किनारे मैदान में परधर्मी गजनवी से संघर्षपूर्ण युद्ध किया किन्तु राजा जयपाल के सारे हिरे जवाहारात माणिक, मोती, सोना, चांदी लुटकर गजनवी भटिन्डा शहर लुटकर वापस अफगानिस्तान चला गया। यही गजनवी को भारतीय स्वर्ण भंडार, हिरे जवाहरात की चमक लुभाने लगी। इसवी सन् 1024 गजनवी तक कुल 11 बार आक्रमण किया। इ.सं. 1017 में वह पंजाब से आगे बढ़कर गंगा किनारे के महत्वपूर्ण शहर कानपुर, कन्नौज, आगरा इत्यादि लुटकर मथुरा जा पहुँचा, मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण का मंन्दिर ध्वस्त कर मन्दिर में रखी स्वर्ण मूर्तियों को पिघलवा दिया और यह सोना अपने साथ लेकर गया। जब उसे यह समझा की सोमनाथ मन्दिर हिन्दुस्तान का सबसे अधिक श्रीमन्त (धनवान्) मन्दिर है। सोमनाथ मन्दिर के शिवलींग को समुद्र स्थान करवाता है। छप्पन रत्न जड़ित स्तम्भो पर खड़े इस मन्दिर में 100-100 मन वजन के हिरे माणिक मोतियों से सुशोभित बड़े-बड़े झुमर लगे है देवताओं की 9-9 फिट उंची ठोस स्वर्ण की प्रतिमाएँ स्थापित है इस वैभवशाली सोमनाथ मन्दिर का स्वर्ण, जवाहरात की कीमत तत्कालीन इतिहासकारो के 30 करोड़ रू. आंकी थी। किन्तु इ.स. 1024 में इस बुतफरोश, बतशिकत मोहम्मद गजनवी ने आक्रमण कर मन्दिर ध्वंस्त कर अपार सम्पत्ति संचय कर आर्य धर्म और हिन्दू संस्कृति को तहस नहस करने का प्रयास किया। इन्हीं परधर्मियों ने इसवी सन 1666 में अयोध्या का मन्दिर, 1669 काशी विश्वनाथ मन्दिर व ज्ञानवापी मन्दिर सहित अनेक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थ स्थल, मठ, देवालय, ध्वस्त कर दिये। परधर्मिय शासकों को अब समझ में आ गया था कि भारतभूमि स्वर्णखदान है यह का जन जीवन सुखी और सम्पन्न है, यहाँ के लोग आस्था व विश्वास से मूर्ति पूजा करते है इन्होंने यह मान लिया था कि हिन्दू धर्म याने केवल मूर्ति पूजा ही है। इसी कारण गजनवी के पश्चात, कुतुबद्दीन एबक, जलाउद्दीन खिलजी, गयासुद्दीन तुगलक, तैमूरलंग, बहमनी, बेरीदशाह, इमादशाह, निजामशाह, मुगल, आदिलशाह आदि परधार्मिक शासकों ने भारतीय पुरातात्विक, स्मारकों, मन्दिरों और गुरूकुलों को लुटकर ध्वस्त करने कार्य सतत इ.स. 1707 तक जारी रखा, इन बुतशिफन सुल्तानों बादशाहों ने अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए, धर्मपरिवर्तन और त्र्यंबकेश्वर, घृष्णेश्वर, तुलजापुर, जेजुरी, पंढारपुर मन्दिर लुटकर ध्वस्त कर हिन्दू धर्मियों प्रजा को अनेक प्रकार से यातना देना प्रारंभ किया। तत्कालीन क्षत्रिय, राजपूत, गुजराती, पंजाबी, विजय नगर, बुन्देला और मराठा राजाओं ने
इन ध्वस्त सस्मारकों, मन्दिर का पूर्ननिर्माण, जिर्णोद्वार सतत जारी रख हिन्दू धर्म की ध्वजा को ऊचा रखन अक्षुण्य रखा।
इसवी सन 1600 में मराठे स्वदेश स्वतंत्रता और हिन्दू अस्मीता बचाने के लिए जी जान से लड़ रहे थे। मराठो का नेतृत्व कर रहे छत्रपति शिवाजी महाराज के दादाजी मालोजी राजे भोसले ने अपनी निजामशाही सरदारी में सर्वप्रथम ज्योतिलींग घृष्णेश्वर मन्दिर निजाम शाह से मुक्त कराकर उसका जिर्णोद्धार कर पूजन प्रारंभ किया। पश्चात् इ.स. 1490 से 1600 तक निजामशाही कब्जे क त्र्यंबक गढ़ और ज्योर्तिलींग त्र्यंबकेश्वर मन्दिर मुक्त करा कर जिर्णोद्धार कराया, किन्नु निजाम के सैनिकों के पुनः मन्दिर अपने कब्जे में ले लिया। जिसे शिवाजी महाराज के पिताजी शाहजीराजे भोसले ने इ.स. 1631 में निजाम से पुनः हस्तगत कर लिया। 1648 तक त्र्यंबकेश्वर क्षेत्र का महसुल शाहजी राजे भोंसले वसुल कर त्र्यंबकेश्वर मन्दिर पूजन व जिर्णोद्धार का कार्य सतत जारी रखा। 31 दिसम्बर 1663 को सुरत मुहिम पर रवाना होने से पूर्व छत्रपति शिवाजी महाराज ने त्र्यंबकेश्वर मन्दिर का दर्शन कर 100 होन (शिवाजी की स्वर्ण मुद्रा होन नाम से जानी जाती है) प्रतिवर्ष देने के आदेश जारी किये जिसमें 60 होन श्री शंकर त्र्यंबकेश्वर के पूजन एवं 40 होन पूजन साहित्य और ब्राह्मण दक्षिणा की व्यवस्था की गई। 1672 में अपनी चतुराई से औरगजेब की आगरा कैद से मुक्त होकर शिवाजी महाराज मथुरा में श्रीकृष्ण मन्दिर का दर्शन कर गुप्त रूप से तिर्थार्टन करत हुए काशी विश्वनाथ पहुंचे जहाँ ध्वस्त मन्दिर की दुर्दशा पर क्रोधित होकर जिर्णोद्धार की योजना मन में लेकर जगन्नाथपुरी पहुँच यहाँ जिर्णोद्धार का संकल्प लेकर पुरी में सिंह द्वार के पास लोह स्तम्भ बनाया और अपने साथियों को प्रेरित करते हुए कहा की अपने यह भारतीय तिर्थ स्थल हिन्दू संस्कृति का अविभाज्य अंग है। इसी प्रकार महाराष्ट्र और भोसले कुल की कुल स्वामीनी तुलजा भवानी और पंढरपुर के विठ्ठल मंदिर का जिर्णोद्धार सरक्षण और पूजन विधी हेतु व्यवस्था छत्रपति शिवाजी के कार्यकाल में ही प्रारंभ हुई।
यही परम्परा शिवाजी के छोटे भाई व्यकोजी रोज भासले और उनके वंशजों ने इ.स. 1696 से 1855 के काल में 180 वर्षों तक लगातार जारी रखते हुए दक्षिण में तंजापुर, मदुरै चौकणाद के मन्दिरों का पुरातत्वीव स्मारकों का जिर्णोद्धार किया। तंजापुर के भासले घराने की सरस्वती ग्रंथालय में आज भी 3 लाख पुरातन ग्रंथों की सम्पदा सहेजकर रखी है। इसी घराने के शिवाजी राजे भासले (तृतीय) ने 1962 के चीन-आक्रमण के समय अपने कोष में से 2000 किलो सोना भारत सरकार को सैन्य सहायता के रूप में भेज कर भासले कुल की परम्परा को जारी रखा है।
यही गौरवशाली परम्परा मराठा राजपरिवार के घोरपड़, निबांलकर, पेशवा, होलकर, पंवार, शिन्दे, दाभाड़े, गायकवाड आदि घरानो ने सतत जारी रखा हिन्दू संस्कृति को सदृड बनाने के महनीय प्रयास किये है।
नाना साहब पेशवा के 16 लाख रू. खर्च कर इसवी सन 1755 से 1786 के काल में त्र्यंबकेश्वर मन्दिर का सम्पूर्ण जिर्णोद्धार कराया।
3 अप्रेल 1752 को मुगल बादशाह अहमद शाह से मल्हार राव होलकर, दत्ताजी शिन्दे ने दिल्ली सल्तनत को बचाने हेतु करार कर अयोध्या, काशी, मथुरा, मराठा राज्य सम्मिलित करने की पहल की किन्तु पेशवा रघुनाथराव ने होलकर और शिन्दे की इस पहल को तत्काल रोकने के आदेश दिया, और इन प्रमुख तिर्थ स्थलों के अधिकार से मराठे वंचित रह गए। मल्हारराव होलकर ने काशी को मुक्त कराने के प्रयास सतत् जारी रखे किन्नु नवाब और स्थानिय निवासियों के असहयोग से मल्हारराव का यह सपना अधुरा ही रह गया। बाद में मल्हारराव होलकर की पुत्रवधु अहिल्यादेवी होलकर ने इ.स. 1669-70 में 10000 रू. की हुन्डी देकर काशी विश्वनाथ मन्दिर का जिर्णोद्धार सम्पन्न कराया, इसी प्रकार 1787 में अयोध्या का प्रभु श्रीराम का मन्दिर, त्रेताराम मन्दिर, भैरव मन्दिर काजिर्णोद्धार कर शरयु तट पर 2 घाट बनाकर अन्नछत्र बनवाए और 2000 रू. वार्षिक अन्नछत्र हेतु, मन्दिर पूजन हेतु 231 रू. प्रतिवर्ष की व्यवस्था स्थापित की। अहिल्या देवी ने, काशी, मथुरा, चित्रकूट, नासिक, पंढरपुर, प्रयाग, सोमनाथ, गया, परलीबेजनाथ, घृष्णेश्वर, द्वारका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपूरी जैसे ज्योर्तिलिंग सप्तपुरी, चारोंधाम के तिर्थ क्षेत्रों के जिर्णोद्धार नवनिर्माण कर मराठा शासकों की हिन्दु संस्कृति के आस्था का दिप तैवत रखा। समय इन मराठा शासकों की स्मृतियां मिटा नही सका, इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में जिनकी कीर्ति से अंकित मानवीय संवेदनाओं के लिए मराठा शासकों द्वारा किये गए कार्यों का सही मुल्यांकन उस युग क सन्दर्भ और परिस्थितियों को सामने रख कर किया जाना बहुत आवश्यक है।
उक्त आलेख डॉ. गणेश शंकर मतकर द्वारा संग्रहित ऐतिहासिक ग्रंथों एवं उनके शोध प्रबंधक के आधार पर तैयार किया गया। –सुनील गणेश मतकर