हमारे मालवा क्षेत्र में नागपंचमी एक बड़े उत्सव के रूप में मनाया जाता है। नागपंचमी के दिन कुश्ती के मुकाबले याने कि दंगल के बड़े आयोजन होते हैं। बड़ी संख्या में लोग कुश्ती का आनन्द उठाते हैं। घरों में आज दाल बाटी का भोजन बनता है। दरअसल, पारंपरिक रूप से आज लोहे के किसी उपकरण को हाथ नहीं लगाया जाता। इस वजह से कढ़ाई, तवा आदि भी उपयोग में नहीं लाए जाते थे। दाल बाटी बनाने में न तवा लगता है न कढ़ाई इसलिए सभी घरों में बनाई जाती है।
वर्षा ऋतु में सांप और नागों के अपने बिलों से बाहर निकलने की घटना बढ़ जाती है। वर्षा का जल उनके बिलों में घुस जाता है, नदी नाले जिनके किनारों की झाड़ियों में भी सर्पों का निवास रहता है, में जल स्तर बढ़ जाता है जिस वजह से भी से बिलों झुरमुटों से बाहर निकल आने के लिए मजबूर हो जाते हैं। भारतीय पारंपरिक चिंतन सभी प्राणियों को अभय देता है और जीने के समान अवसर प्रदान करता है। इसी सोच के चलते इस ऋतु में नाग पूजा का दौर प्रारंभ हुआ होगा। लोहे को स्पर्श न करने के पीछे भी यही भावना है कि जीव हत्या से बचा जाए।
हमारे बचपन में सुबह से ही संपेरे बीन और नाग ले कर गलियों में आवाजे लगाने लगते थे। हर घर से महिलाएं नाग की पूजा कर दूध अर्पित करती और संपेरे को कुछ नेग दिया जाता। परन्तु कुछ दशक पूर्व नाग पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पशु प्रेमियों को नाग का टोकरी में रखा जाना गैरवाजिब नजर आया पर यह नजर नहीं आया की सारा समाज नाग को पूजता है और यदा कदा घर आंगन में कोई सर्प निकल आए तो अक्सर घर के बड़े यही कहते हैं कि मारने की कोई आवश्यकता नहीं, निकल जायेगा।
परिणामत: आज के दिन होने वाली नागपूजा अब पूर्णतः बन्द हो चुकी है। नाग पूजा पर प्रतिबन्ध उचित था या नहीं इस पर बहस हो सकती है परन्तु सदियों से चली आ रही एक पूजा सरकार द्वारा प्रतिबंधित किए जाने पर इस देश के करोड़ों पूजकों ने न पत्थर फेंके, न वाहन जलाए और न ही किसी के घर फूंके। नए युग की नई भावनाओं का सम्मान करते हुए शासन के निर्णय को स्वीकार भी किया और अंगीकार भी।
सभी को नागपंचमी की शुभकामनाएं!
कक्षा तीसरी में यह कविता हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। आज भी नागपंचमी पर इसकी याद आ ही जाती है।
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े मे
तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कसकर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
– श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर