वर्तमान समय में समाज और देश को बांटने में कई संगठन लगे हुए हैं, जो भारत की संस्कृति को कैसे तोड़ा जाए, जनजातीय समाज को कैसे इस महान संस्कृति से दूर किया जाए दिन रात इस षड्यंत्र मेँ सक्रिय हैं।अगर हम बात करें भारतीय संस्कृति की तो सबसे पहले हमें जनजाति समाज की ओर ध्यान आता है भारत की संस्कृति की मूल जड़ जनजाति समाज है जो ईश्वर और प्रकृति के सबसे निकट रहता है। वर्तमान समय में जनजाति समाज अपनी बोवनी में लगा हुआ है वह बोवनी की पूर्व बाबा गणेश के नाम से सर्वप्रथम नारियल फोड़ पर अपने नए वर्ष अर्थात बोने का कार्य शुरू करता है। यह एक विश्वास नहीं अपितु अन्य समाज के लिए सीख और प्रेरणा भी है। यह प्रक्रिया यहाँ तक ही सीमित नहीं है। यह समाज अपना नया अनाज पकने के बाद सर्वप्रथम स्थानीय देवी-देवताओं को अर्पण करने के बाद ही नया अनाज ग्रहण करता है, यह ईश्वर के प्रति उनका अटूट विश्वास का प्रतीक है। जनजाति समाज शादी ब्याह, मरण तक भी ईश्वर को पहले पूजा अर्चना के बाद ही अपने कार्य की शुरुआत करता है। जनजाति समाज निर्मल,निश्छल, भोला, भाला होता हैं, जिसकी आड में कई षड्यंत्र कारी शक्तियों द्वारा समाज को आपस मेँ फूट डालकर तोड़ने का कार्य पिछले कई वर्षों से किया जा रहा है।
समय धीरे-धीरे अपने राष्ट्रीय स्व की ओर जाग रहा है जो समाज में पढ़े-लिखे युवा अपनी संस्कृति, सभ्यता, रीति रिवाज को समाज के बीच में रख रहे हैं। दूसरी ओर देखने मेँ आता है कि प्रत्येक गांव में जो पूजा की जा रही है जो सनातनी आदिवासी समाज है इस पूजा पद्धति में हिस्सा लेता है, किंतु धर्मांतरित जनजाति समाज के लोग इस परम्परा गत पूजा पद्धति से दूर रहते हैं।
गांव की सुख समृद्धि के लिए प्रत्येक गांव में मांडला परम्परा होती है, जो गांव की एक सीमा से दूसरी सीमा तक उसे ले जाते हैं। वह स्थानीय देवी देवताओं को भोग लगाया जाता है। वहीं गांव की सावन माता को प्रतिवर्ष पूजन पाठ प्रतिदिन करके भोग लगाया जाता है। यह केवल सनातनी जनजाति समाज के लोग ही करते हैं, धर्मांतरित जनजाति समाज के लोग इस कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेते हैं।
साथियों कहीं न कहीं हमारे भोले,भाले समाज को बाँटने का षड्यंत्र चल रहा है जों कि वर्षों से चल रहा है। अब उसे हमें अपने समाज के बीच में रखने की आवश्यकता आ गई है।
ताकि हमारा समाज भगवान राम, भगवान भोले ईश्वर, हनुमान, गणेश, बाबा देव, कसूमर बाबा, कहाजा, वगाजा को पूजते आया है, हमारा समाज लालबाई, फूलबाई को पुजते आया है, हमारा समाज भेरुजी को पूजते आया है, हमारा समाज कलमाता का पूजते आया है।यह बात हमें समाज के बीच में रखना चाहिए जिससे कि हमारी पूजा पद्धति सनातन संस्कृति ही है सभी जनजाति समाज मेँ प्रचारित, प्रसारित हो।
जहां तक मैं मानता हूं हिंदू धर्म का जनक आदिवासी समाज है जो हमें वनांचल में इसके प्रमाण मिलते हैं।
जब भी आप समाज के बीच जाओ या Social Media ईत्यादि जगह कोई व्यक्ति आपको यह बोले की आदिवासी हिंदू नहीं है तो समझ जाओ की वह व्यक्ति आदिवासी धर्म संस्कृति और पूर्वजों की रूढ़ी परम्पराओं को छोड़ चूका है, धर्मांतरित हो चूका है, नास्तिक बन चूका है, वामपंथी मार्ग अपना चुका है या धर्म विरोधी-कम्युनिस्ट विचाराधारा को समर्पित हो चुका है।
आजकल पढे लिखे अधिकतर युवा ऐसे ही धर्म विरोधी विचारों से प्रभावित हो रहे है और पूर्वजों की धार्मिक प्रथा को अंधश्रद्धा या काल्पनिक बोलकर Rationalist या Secular बन रहे है।
अब बात आती है सत्य को कैसे समझें, धर्म संस्कृति की जड़ों को कैसे खोजें तो उसके लिए सबसे पहले आपको कुछ बिंदू समझने होंगे जैसे की आपके पूर्वज मूर्ख नहीं थे, आपकी धर्म संस्कृति अंधश्रद्धालु नहीं है, आपके पूर्वज देवी देवताओं को मानने वाले धार्मिक लोग थे और हमारी संस्कृति का सबसे बडा प्रमाण हमारे माता पिता और पूर्वज होने चाहिए ना की आजकल के नास्तिक, राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता। अपने पूर्वजों की परम्पराओं को शुद्ध स्वरूप में जानते है, वो हमारी तरह नास्तिक, धर्म संस्कृति विरोधी अंग्रेजी शिक्षा नहीं पढे इसलिए धार्मिक है।
बाबाजी के शब्दों को समझिए वो बता रहे है की आदिवासी समाज बहु ईश्वरवादी समाज है, राम, माता सीता, लक्ष्मण, पार्वती, शिवजी,पांच पांडव, कालिका माता, नर्मदा माता के साथ कई अन्य लौकिक देवी देवताओं की भी पूंजा करता है जनजाति समाज।
अब आप समाज में एक वर्ग को देखेतें होंगे जो हर पल एक ही कार्य में जुटा है की आदिवासी समाज को कैसे भारत देश की महान धर्म संस्कृति से अलग किया जाए और यह लोग धर्म संस्कृति को समझे बिना महान धर्म प्रेमी और देश भक्त आदिवासी समाज को गुमराह कर रहे है, जो देवी देवता हमारे देश की धर्म संस्कृति से जुडे हैं,उनको आदिवासी समाज से अलग कर रहे हैं।और हमारे कुल देवता या जो लौकिक परंपरा है बस वही हमारे देवी देवता है ऐसा बोल रहे है और यही विचारधारा अलगाववादी विचारधारा है यह विचारधारा इतिहास में किसी भी जनजाति समाज के क्रांतिकारी की नहीं रही है।
लेखक: निलेश कटारा