भारत के हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश में प्रवाहमान मोक्षदायिनी माँ सिपरा नदी के तट पर बसी इतिहास और आध्यात्मिकता की एक प्राचीन नगरी है, उज्जैन । इस नगरी में व्रत, उत्सव, पर्व एवं त्योहारों के साथ-साथ आस्था व परंपराओं को भी विधिपूर्वक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इन्हीं उत्सवों में से एक है श्रावण एवं भादौ मास में निकलने वाली “बाबा महाकालेश्वर की सवारियां”।
श्रावण एवं भादौ मास में तीज-त्योहारों के साथ-साथ बाबा महाकालेश्वर की साही सवारी के दर्शन का अपना महत्व एवं आकर्षण है। इसके लिए गांव-गांव एवं नगर से आस्था का सैलाब उमड़ता है। क्योंकि बाबा महाकालेश्वर इस नगरी के राजाधिराज महाराज हैं और यही कारण है कि श्रावण-भादौ के महीने में अपने भक्तों का हाल-चाल जानने एवं उनके कष्टों को दूर करने हेतु नगर भ्रमण करते हैं। माता पार्वती स्वयं हरसिद्धि, गढ़कालिका एवं नगरकोट की महारानी बनकर तथा स्वयं बाबा काल भैरव सेनापति बनकर इस नगर की रक्षा करते हैं और चौरासी महादेव उनके चौरासी मंत्रालय हैं, जो भक्तों के सभी प्रकार के कष्टों का निवारण करते हैं। बारह ज्योतिर्लिंगों में उज्जयिनी के बाबा महाकालेश्वर का महत्व इसलिए भी अन्य तीर्थों से तिल भर अधिक है क्योंकि वे सिर्फ उज्जयिनी के नहीं वरन् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के महाराजाधिराज हैं । जहां काशी विश्वनाथ की नगरी में विराजमान चौरासी महादेव में से तिरयासी महादेव प्रकट एवं एक गुप्त रूप में विराजमान हैं वहीं उज्जयिनी में सभी चौरासी महादेव प्रकट रूप में विराजमान हैं ।
महाकालेश्वर की सवारी की परंपरा का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है । पौराणिक आख्यान के आधार पर देवशयनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु सारी सृष्टि का कार्यभार बाबा महाकालेश्वर को सौंप कर क्षीरसागर में शयन के लिए प्रस्थान करते हैं। इसी विशेष प्रयोजन के लिए बाबा महाकाल तीनों लौकों की प्रजा का हाल-चाल जानने निकलते हैं। देवशयनी ग्यारस के तीन दिन बाद श्रावण मास प्रारम्भ हो जाता है । उज्जैन में निकलने वाली बाबा महाकाल की सवारी इन्हीं दैवीय व्यवस्थाओं का प्रतीक है। चार माह उपरांत जब देवउठनी ग्यारस (देव दीपावली) पर भगवान विष्णु शयन कर उठते हैं तब कार्तिक मास में बाबा महाकाल लाव-लश्कर के साथ श्री द्वारकाधीश गोपाल मंदिर पहुंच भगवान विष्णु को सृष्टि का कार्यभार पुनः लौटा देते हैं। इसे “हरिहर मिलन” के रूप में मनाया जाता है।
बाबा महाकालेश्वर की नगर भ्रमण यात्रा बैंड-बाजों के साथ शहर के मुख्य मार्गों से होकर गुजरती है। इस पालकी यात्रा में गणमान्य नागरिक, समाजसेवी, राजनेता, कलाकार, संगीतकार और नर्तक शामिल होते हैं । भगवान महाकालेश्वर को चांदी के रथ में बैठाकर शहर में घुमाया जाता है । इस रथ को कई प्रकार के फूलों से भी सजाया जाता है । लाखों श्रद्धालु भक्तगण, भजन मंडलियां एवं अखाड़े इस यात्रा में शामिल होते हैं । राजाधिराज बाबा महाकालेश्वर के दर्शन पाने के लिए भक्तों की भीड़ हफ्तों पहले से शुरू हो जाती है । जुलूस में शामिल होने वाले विभिन्न कलाकारों में भंडारी, नागा साधु, ढोल नगाड़े वाले, तलवारबाज़, घुड़सवार सिपाही भी शामिल होते हैं ।
वैसे तो यह परंपरा अशोक और विक्रमादित्य जैसे सम्राटों के समय से निभाई जा रही है लेकिन 11वीं शताब्दी के आसपास, प्रसिद्ध परमार राजा, भोज के शासनकाल के दौरान इस अनुष्ठान को प्रमुखता मिली। राजा भोज ने इस परंपरा को बड़े रूप में करना शुरू किया था । वर्तमान समय में सवारी का पूजन -स्वागत- अभिनंदन शहर के बीचोंबीच स्थित गोपाल मंदिर में सिंधिया परिवार की और से किया जाता है जिसमें स्थानीय अधिकारी, मंदिर ट्रस्ट और उज्जैन के लोग इस प्राचीन परंपरा को संरक्षित और बढ़ावा देने में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। सरकार और विभिन्न संगठन भी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में शहर के संरक्षण और विकास में योगदान देते हैं। उज्जैन में महाकाल की सवारी अखंड आध्यात्मिक विरासत की प्रतीक है, जो भक्तों को बाबा महाकालेश्वर के लौकिक स्वरूप में डूब जाने के लिए आमंत्रित करती है।
– डॉ. राजेश रावल “सुशील”