श्रीपाद अवधूत की कलम से

आज जानने का प्रयास करते हैं कि 1. पितृ पक्ष मनाने का वास्तविक कारण क्या है…??
- पूर्वज कैसे ग्रहण करते हैं तर्पण एवं पिंडदान…??
पूर्वजों की आत्माओं की संतुष्टि के लिए श्रद्धा भाव से विधि-विधान के साथ किये गये यज्ञ को श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध की व्यवस्था वैदिक काल से चली आ रही है। श्राद्ध का उद्देश्य अपने पितरों के प्रति सम्मान करना है क्योंकि यह मनुष्य योनि अर्थात् हमारा शरीर पितरों की आत्माओं की कृपा के कारण हमें मिला है। ऐसे में पूर्वजों के ऋणों से मुक्ति के लिए श्राद्धकर्म किया जाता है।
यह भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद अमावस्या तक मनाए जाने वाला सोला दिन का पर्व है। इन 16 दिनों में चंद्रमा का प्रकाश अर्थात उसकी कला धीरे धीरे कम होती जाती है। इसे ही जीवन के क्षय, मृत्यु और फिर से पुनर्जन्म का प्रतीक माना गया है।
इस पितृपक्ष की अवधि में चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है जिसके कारण उसका गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और मानसिक ऊर्जा का स्तर अधिकतम होता है। इसी कारण जीव शरीर एवं सूक्ष्म विचार ऊर्जा बहुत आसानी से जुड़ जाते हैं।
श्राद्ध मृत्यु उपरांत आत्मा के गमन जिसे संस्कृत में प्रैति कहते हैं से जुड़ा हुआ है। प्रैति ही बाद में बोलचाल में प्रेत बन गया। इसमें कोई भूत-प्रेत वाली बात नहीं है। हमारे शरीर में आत्मा के अतिरिक्त मन और प्राण हैं। आत्मा तो कहीं नहीं जाती, वह तो सर्वव्यापक है।
मृत्यु के समय शरीर से जब मन को निकलना होता है। तब वह प्राण को साथ लेकर निकलता है। ऐसा मानते हैं कि प्राण को शरीर से मोह रहता है। इसके कारण वह शरीर के आस पास ही घूमता रहता है। कहीं जाता नहीं हैं। शरीर को जब नष्ट किया जाता है। उस समय प्राण मन को लेकर चलता है।
मन
“चंद्रमा मनस: लीयते”
यानि मन चंद्रमा से आता है।
“चंद्रमा मनसो जात:”
यानि मन ही चंद्रमा का कारक है।
इसलिए जब मन खराब होता है तो उस व्यक्ति में पागलपन चढ़ता है। उसे अंग्रेजी में ल्यूनैटिक कहते हैं। ल्यूनार का अर्थ चंद्रमा होता है और इससे ही ल्यूनैटिक शब्द बना है। हृदयाघात जैसी समस्याएं पूर्णिमा के दिन अधिक होती हैं। एक शोध से यह भी पता चला है कि दुर्घटनाएं और आत्महत्याएं सबसे अधिक पूर्णिमा या अमावस्या के दिन ही होती हैं। जिसका संबंध भी मन से ही निकलता है।
चंद्रमा वनस्पति का भी कारक है। रात को चंद्रमा के कारण वनस्पतियों की वृद्धि अधिक होती है। इसलिए रात को ही पौधे अधिक बढ़ते हैं। दिन में वे सूर्य से प्रकाश संश्लेषण के द्वारा भोजन लेते हैं और रात चंद्रमा की किरणों से बढ़ते हैं।
आयुर्वेद में बताया गया है कि जो अन्न हम खाते हैं। उससे रस बनता है। रस से रक्त बनता है। रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से मज्जा और मज्जा के बाद अस्थि बनती है। अस्थि के बाद वीर्य बनता है। वीर्य से ओज बनता है। ओज से मन बनता है।
इस प्रकार चंद्रमा से ही मन बनता है। हिंदी में कहावत भी है “जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन।”
मन जब जाएगा तो उसकी यात्रा चंद्रमा तक की होगी। दाह संस्कार के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होगा, मन उसी ओर अग्रसर होगा। प्राण मन को उस ओर ले जाएगा। यहां प्राण कैरियर अर्थात वाहक का कार्य करता है।
चंद्रमा को पृथ्वी का एक चक्कर लगाने में 28 दिन लगते हैं अर्थात जिस स्थान से वह घूमने आरंभ करता है उसी स्थान पर आने में उसे 28 दिन लगते हैं। इसका जो घूर्णन कक्ष है वह 27 नक्षत्र में विभक्त है। अर्थात 27 दिनों के अपने चक्र में चंद्रमा 27 नक्षत्र में घूमता है। इसलिए चंद्रमा घूमकर 28वें दिन फिर से उसी नक्षत्र में आ जाता है।
मन की यह यात्रा भी 28 दिन की होती है। इन 28 दिनों तक मन की ऊर्जा को बनाए रखने के लिए ही श्राद्धों की व्यवस्था की गई है। अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले जितने भी यान होते हैं। उन यानो को अपने गंतव्य तक पहुंचाने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता होती है। वह ऊर्जा अलग-अलग चैंबर बनाकर यान के साथ ही प्रेषित की जाती है।
चूंकि यह मूर्त अवस्था में जाता है इसलिए यह व्यवस्था भी मूर्त या भौतिक रूप से की जाती है लेकिन मन यह अमूर्त है इसलिए इसकी व्यवस्थाएं भी अमूर्त रूप से की जाती हैं लेकिन प्रणाली एक ही प्रकार की होती है और यही व्यवस्था हमें श्राद्ध कर्म में देखने को मिलती है।
यहां चंद्रमा सोम का भी कारक है। इसलिए उसे सोम भी कहते हैं। सोमतत्व सबसे अधिक चावल में होता है। धान हमेशा पानी में डूबा रहता है। सोम तरल होता है। इसलिए चावल के आटे का पिंड बनाते हैं। तिल और जौ भी इसमें मिलाते हैं। इसमें पानी मिलाते हैं, घी भी मिलाते हैं। इन पदार्थों के मिलाने से उसकी तरलता और अधिक बढ़ जाती है। आप सब लोगों ने अपने घरों की रसोई में देखा होगा कि दाल पकाने के लिए जब चूल्हे पर चढ़ाते हैं तो उसमें थोड़ा तेल डाल दिया जाता है। जिससे दाल आसानी से पक जाती है क्योंकि तेल डालने से पानी में तरलता बढ़ जाती है। जब तरलता बढ़ती है तो कोई भी वस्तु आसानी से पक जाती है या गल जाती है। इसलिए इसमें और भी अधिक सोमत्व आ जाता है।
हथेली में अंगूठे और तर्जनी के मध्य में नीचे का उभरा हुआ स्थान है। वह शुक्र का होता है। जिसे शुक्र का पर्वत कहते हैं। शुक्र हमारी कामवासना का नियंत्रक है। इसके कारण ही संतति उत्पन्न होती है। इसलिए वहाँ कुश रखा जाता है। कुश ऊर्जा का कुचालक होता है। श्राद्ध करने वाला इस कुश रखे हाथों से इस पिंड को लेकर सूंघता है, चूंकि उसका और उसके पितर का शुक्र जुड़ा होता है, इसलिए वह उस श्रद्धाभाव से उस आकाश की ओर देख कर पितरों के गमन की दिशा में उन्हें मानसिक रूप से उन्हें समर्पित करता है और पिंड को जमीन पर गिरा देता है। इससे पितर फिर से ऊर्जावान हो जाते हैं और वे 28 दिन की यात्रा करते हैं। इस प्रकार चंद्रमा के तेरह महीनों में श्येन पक्षी अर्थात एक दिव्य पक्षी जो बाज की तरह होता है। जो पृथ्वी पर मौजूद सभी वस्तुओं के कायाकल्प और पुनरोद्धार के उद्देश्य से सोम (अमृत) को पृथ्वी पर लाने के लिए स्वर्ग जाता है।
वैदिक अनुष्ठान में ईंटों से बाज के आकार में बनायी गयी वेदी को भी श्येन कहते हैं। यजुर्वेद में इस अग्नि-वेदी के निर्माण के दौरान पढ़ी जाने वाली प्रार्थनाओं और मंत्रों का उल्लेख है। जो सर्जक और सृजित का प्रतिनिधित्व करता है। पुराणों में, श्येन भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ बन जाता है। जिसका उल्लेख महाभारत के आदि पर्व में भी मिलता है, और जो नागों की माँ और ऋषि कश्यप की सह-पत्नी कद्रू के कहने पर अमृत को स्वर्ग से लाया था। इसकी गति से वह चंद्रमा तक पहुँचता है। यह पूरा एक वर्ष हो जाता है। इसके प्रतीक के रूप में हम तेरहवीं करते हैं। गंतव्य तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं। इसलिए हर 28वें दिन पिंडदान किया जाता है। उसके बाद हमारा कोई अधिकार नहीं। चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाएगा और वह चंद्रमा में विलीन हो जाएगा। फिर उसकी अलग से कोई व्याप्ति नहीं रहेगी।
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त।