
‘विश्व मूलनिवासी दिवस’ : भारत में प्रासंगिकता या विभाजन का षड्यंत्र?
हर साल 9 अगस्त को ‘विश्व मूलनिवासी दिवस’ दुनियाभर में मनाया जाता है। इस दिन का उद्देश्य उन मूलनिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना है, जिन पर उपनिवेशवाद या साम्राज्यवाद के दौरान अमानवीय अत्याचार हुए। परंतु प्रश्न यह है कि क्या यह दिवस भारत के लिए प्रासंगिक है? या इसे भारत के सामाजिक ताने-बाने में फूट डालने के षड्यंत्र के रूप में कुछ शक्तियाँ भुना रही हैं?
भारत के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि यहाँ का हर नागरिक — चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, या भाषा का हो — इसी भूमि का मूलनिवासी है। भारत में निवास करने वाली जनजातियाँ हों या गाँवों-शहरों में रहने वाले लोग, सभी के पूर्वज इसी धरती से जुड़े हुए हैं। इसीलिए भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के ‘मूलनिवासी अधिकारों’ के घोषणा-पत्र पर 2007 में हस्ताक्षर तो किए, लेकिन यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘मूलनिवासी’ की पश्चिमी अवधारणा भारत पर लागू नहीं होती।
दूसरी ओर, कुछ संगठन और विदेशी ताकतों से प्रेरित विचारधाराएँ जनजाति समाज को यह कहकर बहकाने की कोशिश कर रही हैं कि वे ही “असली मूलनिवासी” हैं और बाहरी आक्रमणकारियों ने उन्हें उनकी भूमि से बेदखल कर जंगलों में धकेल दिया। इस दावे को ‘आर्य-बाहरी सिद्धांत’ के नाम पर पुष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है, जबकि यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से पूरी तरह तथ्यहीन है। भारत में आर्यों और द्रविड़ों का भेद आज भी उपनिवेशकालीन विभाजनकारी एजेंडा का अवशेष मात्र है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

इस विषय में सबसे खतरनाक बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र के मूलनिवासी अधिकारों के घोषणा-पत्र में ‘स्व-निर्णय का अधिकार’ (Right of Self-determination) नामक धारा भी है, जो मूलनिवासियों को अपनी इच्छा से अलग होने का और बाहरी शक्तियों से मदद लेने का अधिकार देती है। विश्वभर में कई जगहों पर इस अधिकार का दुरुपयोग अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए हुआ है। यही कारण है कि भारत में जनजातीय समाज को ‘अलग मूलनिवासी’ सिद्ध करने की कवायद कुछ ईसाई मिशनरियों और विघटनकारी तत्वों द्वारा जोरों पर चल रही है, ताकि आने वाले समय में देश के भीतर अलगाववाद को हवा दी जा सके।
इतिहास हमें सिखाता है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों में यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने वहां के वास्तविक मूलनिवासियों का नरसंहार कर उनकी ज़मीनें हथिया लीं। अमेरिका का ही उदाहरण लें: 1830 में राष्ट्रपति एंड्रयू जैक्सन के कार्यकाल में ‘इंडियन रिमूवल ऐक्ट’ पारित हुआ, जिसमें लाखों मूलनिवासियों को उनके पुश्तैनी घरों से जबरन निकालकर हज़ारों किलोमीटर दूर भेजा गया। यह यात्रा इतनी भयावह थी कि इसे ‘अश्रुओं की राह’ (Trails of Tears) के नाम से जाना गया, जिसमें हज़ारों लोग मौत के शिकार हुए। इस उदाहरण से साफ है कि अमेरिका में मूलनिवासियों के अधिकारों का हनन वास्तविक और अत्यंत क्रूर था।
भारत में ठीक उलट स्थिति रही। यहाँ की संस्कृति में जनजातियों और ग्रामीण समाज का सह-अस्तित्व हजारों वर्षों से बना रहा है। भारतीय संविधान ने 1951 में ही अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान किए, जैसे – अनुसूचित क्षेत्रों में स्वशासन, जमीन की सुरक्षा, शिक्षा में आरक्षण आदि। हमारे यहाँ वनवासी समाज को सशक्त बनाने की प्रक्रिया संविधान लागू होने के साथ ही प्रारंभ हो गई थी, जबकि अमेरिका जैसे देशों में मूलनिवासियों को अभी भी न्याय नहीं मिल सका है।
इसीलिए जो संगठन भारत के जनजाति समाज में ‘मूलनिवासी दिवस’ के नाम पर अलग पहचान पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। उनका मकसद जनजाति समाज को मुख्यधारा से तोड़ना और अलगाव की भावना पैदा करना है, ताकि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की एकता को चुनौती दी जा सके।
भारत सरकार ने जनजाति समाज की महान परंपरा और उनके योगदान को सम्मानित करने के लिए भगवान बिरसा मुंडा के जन्म दिवस 15 नवंबर को ‘राष्ट्रीय जनजाति गौरव दिवस’ घोषित किया है। इस दिन का उत्सव जनजाति समाज को जोड़ने, उनकी उपलब्धियों का उत्सव मनाने और समाज के सभी वर्गों में एकता की भावना को मजबूत करने का अवसर है। यह हमारे लिए गर्व की बात है, और इसे प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
आज भारत में अलगाववाद को हवा देने के लिए कई शक्तियाँ सक्रिय हैं। वे घुसपैठियों के पक्ष में भी खड़ी रहती हैं और जनजातियों के बीच अलग पहचान का प्रचार भी करती हैं। ऐसे में प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के आधार पर समाज को जागरूक करे कि भारत में रहने वाला हर नागरिक इसी भूमि का पुत्र है—हम सभी के पुरखे इसी मिट्टी में जन्मे और यहीं उन्होंने सभ्यता और संस्कृति का विकास किया। समाज के लिए यह संदेश अत्यंत आवश्यक है: हम सब भारतीय हैं, हम सब इसी धरती के मूलवासी हैं। यह भावना ही हमारे समाज को जोड़ती है। समाज में फूट डालने वाले तत्वों से सावधान रहें और हर अवसर को समाज के विकास और राष्ट्रीय एकता के सशक्त मंच में बदलें। यही इस दिन का सच्चा संदेश होना चाहिए।