भाद्रपद मास में ही 15 दिनों का पितृपक्ष हम क्यों मनाते हैं..???

पितर का अर्थ होता है। पालन या रक्षण करने वाला। पितर शब्द “पा रक्षणे” धातु से बना है।इसका अर्थ होता है पालन और रक्षण करने वाला।
एकवचन में इसका प्रयोग करने से इसका अर्थ जन्म देने वाला पिता होता है और बहुवचन में प्रयोग करने से पितर यानि सभी पूर्वज होता है। इसलिए पितर पक्ष का अर्थ यही है कि हम सभी पितरों का स्मरण करें। इस निमित्त श्राद्ध करें इस कर्म से पितरों को शांति मिले यह कृतज्ञता का भाव हमारे मन में उत्पन्न होता है। आने वाली पीढ़ी को अपने पूर्वजों को याद रखना उनकी स्मृति को संजोने का एक उद्देश्य मिलता है। उनके उपकारों को याद करने का अवसर मिलता है।

यह तो हमने जान लिया है कि पितरों का संबंध चंद्रमा से है।चंद्रमा की पृथ्वी से दूरी 385000 कि.मी. है। हम जिस समय पितृपक्ष मनाते हैं, यानि कि भाद्रपद कृष्णपक्ष यह पितृपक्ष कहलाता है। इन पंद्रह दिनों में चंद्रमा पृथ्वी के सर्वाधिक निकट यानि कि लगभग 381000 कि.मी. पर ही रहता है। उसका परिक्रमापथ ही ऐसा है कि वह इस समय पृथ्वी के सर्वाधिक निकट रहता है। इसीलिए इस माह की पूर्णिमा को अंग्रेजी में “सुपर-मून” कहा जाता है क्योंकि यह चंद्रमा अधिक चमकीला और अपने आकार में थोड़ा बड़ा दिखता है जिसका संबंध भी इसी बात से है जो वस्तु हमारी आंखों की दृष्टि में जितने निकट होगी वह उतनी बड़ी और उतनी अधिक चमकीली दिखाई देगी। इसीलिए यह मान लिया जाता है कि इस समय पितर हमारे निकट आ जाते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि “विभु: उध्र्वभागे पितरो वसन्ति””
यानि
विभु अर्थात् चंद्रमा के दूसरे हिस्से में पितरों का निवास है।
चंद्रमा का एक पक्ष हमारे सामने होता है, जिसे हम देखते हैं; परंतु चंद्रमा का दूसरा पक्ष हम कभी देख नहीं पाते। इस समय चंद्रमा दक्षिण दिशा में होता है। दक्षिण दिशा को यम का घर माना गया है।
भारत का चंद्रयान चंद्रमा के इसी भाग पर उतरा है।
आज हम यदि आकाश को देखें, तो दक्षिण दिशा में दो बड़े सूर्य हैं। जिनसे विकिरण निकलता रहता है।
हमारे ऋषियों ने उसे श्वान प्राण से चिह्नित किया है। शास्त्रों में इनका उल्लेख “लघु श्वान” और “वृहद श्वान” के नाम से हैं। इसे आज “केनिस माइनर” और “केनिस मेजर” के नाम से पहचाना जाता है।
इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी आता है। वहाँ कहा है कि
“श्यामश्च त्वा न सबलश्च प्रेषितौ यमश्च यौ पथिरक्षु श्वान।”
-अथर्ववेद 8/11/19 के इस मंत्र में इन्हीं दोनों सूर्यों की चर्चा की गई है।
श्राद्ध में हम एक प्रकार से उसे ही हवि देते हैं कि पितरों को उनके विकिरणों से कष्ट न हो।
इस प्रकार से देखा जाए तो पितृपक्ष और श्राद्ध में हम न केवल अपने पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहे हैं, बल्कि पूरा खगोलशास्त्र भी समझ रहे हैं। श्रद्धा और विज्ञान का यह एक अद्भुत मेल है, जो हमारे ऋषियों द्वारा अनादि काल से बनाया गया है। आज समाज के कई वर्ग श्राद्ध के इस वैज्ञानिक पक्ष को न जानने के कारण इसे करते ही नहीं है और जो करते भी हैं वह अज्ञान वश इसे ठीक से नहीं करते। कुछ लोग तीन दिन में और कुछ लोग चार दिन में ही सारी प्रक्रियाएं पूरी कर डालते हैं। यह न केवल अशास्त्रीय है। बल्कि हमारे पितरों के लिए अपमानजनक भी है। जिन पितरों के कारण हमारा अस्तित्व है। उनके निर्विघ्न परलोक यात्रा की हम व्यवस्था न करें। यह हमारी कृतघ्नता ही कहलाएगी।

लेखक – श्रीपाद अवधूत की कलम से

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