ऐतिहासिक चरित्र के लेखन में बहुदा इतिहासकार संशोधन की दृष्टि से जटिल एवं शास्त्रीय प्रमाण को सर्वोपरि मानते हुए चरित्र का निर्धारण करते हैं। यह इतिहास के अभ्यासुओं के लिए तो आवश्यक है, परंतु सामान्य जनमानस में व्याप्त चरित्र की प्रतिमा एवं ख्याति शास्त्रीयता के मानदंडों से ऊपर उठकर उसके प्रति अपने भावनात्मक जुड़ाव एवं अपनेपन को ही ज्यादा महत्व देती है। इतिहास केवल तारीखों की गणनाओं एवं काल स्थान का निर्धारण ही नहीं होता अपितु तत्कालीन समय में उक्त चरित्र की सर्व सामान्य में स्वीकार्यता एवं वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता का लेखा जोखा भी होता है। 17वीं 18वीं शताब्दी में जब दुनिया की और सभ्यताओं में स्त्री को दोयम दर्जे का स्थान प्राप्त था तथा उन्हें अपने अस्तित्व को मनुष्य के रूप में स्थापित करने हेतु से संघर्ष करना पड़ रहा था तब भारतीय समाज स्त्री शक्ति को देवी का स्थान देकर सभ्यता एवं प्रगतिशीलता की नई ऊंचाइयां प्राप्त कर रहा था। हमारे इतिहास में अनेकों राजा महाराजा, सम्राट, जमींदार, वतनदार, हुए उनमें से कुछ निरंकुश दमनकारी एवं तानाशाही वृत्ती से परिपूर्ण होकर शासन भी करते होंगे, किंतु भारतीय सभ्यता के इतिहास में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता की शासन में सर्वोपरि होते हुए किसी स्त्री शासिका ने कभी तानाशाही एवं दमनकारी व्यवहार किया हो, अपितु वे वात्सल्य पूर्ण, जनहित करी, एवं मुत्सद्दी राजनीतिज्ञ की तरह ही दृष्टिगोचर होती है। इस पंक्ति में अग्रणी नाम छत्रपति शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई एवं मातोश्री अहिल्यादेवी होल्कर का है। मालवा निमाड़ की रानी एवं मल्हार राव होल्कर की बहु 8,10 वर्ष की आयु में खंडेराव होलकर से विवाहित होकर मालवा में प्रवेश करती है। होलकरों के मालवा में प्रादुर्भाव से पूर्व मालवा निमाड़ की रैय्यत त्राहि त्राहि कर रही थी, मुगल सूबेदार दया बहादुर के निरंकुश एवं बर्बर शासन व्यवस्था से सामान्य जन जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा था। ऐसे विकट काल में पेशवा के निर्देश पर मराठा शक्तियों का मालवा में प्रवेश होता है। मल्हार राव होलकर अपनी धधकती शमशीर के साथ दया बहादुर को छिन्न भिन्न कर नगर इंदौर में प्रवेश करते हैं। जबरेश्वर महादेव मंदिर के प्रांगण में (वर्तमान में राजवाड़ा इंदौर का पृष्ठ भाग) अपने अश्व की रास को ढीला करते हुए मल्हार राव पदातीत हो कर मालवा की भूमि को प्रणाम करते हैं। इस क्षण से मालवा का सुनहरा काल आरंभ होता है। मुगल शासन से त्रस्त एवं भयभीत जनमानस को आशा का एक दीपक दिखाई देता है। कालांतर में श्रीमंत बाजीराव पेशवा के आग्रह पर मल्हार राव अपने चिरंजीवी खंडेराव का विवाह अहिल्या से संपन्न कर सन 1731 में अहिल्या को होलकारों की पुत्रवधू बनाकर इंदौर नगर में राजश्री वैभव के साथ आगमन करते हैं। तमाम रीति रिवाज की पूर्णता के पश्चात अहिल्या प्रथम बार मालवा की भूमि को स्पर्श करते हुए ऐसे प्रतीत हो रही है मानो कोई महान संगीतकार अपनी प्रस्तुति के पूर्व अपने साज को स्पर्श कर रहा हो साथ ही साथ आवाहन कर रहा हो कि मुझे तुम्हारे साथ की सहयोग की प्रबल आवश्यकता है और क्यों न हो? प्रकृति से सहायता प्राप्त किए बिना राम राज्य की स्थापना हो भी सकती है? स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम को भी तो समुद्र से निवेदन करना ही पड़ा था। शनैः शनैः अहिल्या की बुद्धिमत्ता एवं सहृदयता के चर्चे सारे मालवा में फैलने लगे। मल्हार राव अपनी पुत्रवधू को सामरिकज्ञान, राजनीतिक चातुर्यता, कुशल आर्थिक प्रबंधन के साथ-साथ दैनिक राज्य कार्य के पाठ पढ़ने लगे। विश्व इतिहास में यह अनूठा उदाहरण है कि कोई ससुर अपनी पुत्रवधू को बेटी मानकर उसे राज कार्य के लिए दीक्षित करें यह एकमात्र उदाहरण हमारी संस्कृति की विशालता का परिचायक है। कालचक्र तीव्र गति से गतिमान था मल्हार राव अपने ईहलोक के समस्त कर्तव्यों को पूर्ण कर परलोक गमन कर चुके थे शासन की बागडोर पूर्णतः अहिल्या के हाथों में थी प्रजा सुख एवं समाधान से जीवन यापन कर रही थी। प्रत्येक तीज त्यौहार, सुख-दुख में अहिल्या अपनी प्रजा के साथ होती, मालवा की जनता को वह पुत्रवत स्नेह देती। मालवा की जनता को अहिल्या में “मां” नजर आने लगी सारी प्रजा उन्हें मातोश्री कहने लगी। अहिल्या का राजनीतिक कौशल्य रघुनाथ राव पेशवा एवं उनकी पत्नी आनंदीबाई को पेशवा दरबार से देश निकाला का आदेश हुआ, उस समय आनंदीबाई गर्भवती थी, समय विकट था, सारे राज्य में पेशवाओं के आदेश के विरुद्ध जाकर कौन उन्हें आश्रय देता, सभी तरफ से निराश होकर आनंदीबाई अहिल्यादेवी से पत्र के माध्यम से निवेदन करती है तथा अपनी अवस्था का वर्णन कर महेश्वर में शरण देने का निवेदन करती है। अहिल्या के समक्ष धर्म संकट खड़ा हुआ, आनंदीबाई को शरण देती है तो राजज्ञा का उल्लंघन होता है, राजद्रोह का आरोप लगता है, नहीं देती तो धर्म विमुख होने का पाप लगता, आनंदीबाई को शरण देती तो अपरिपक्व राजनीतिक निर्णय होता इसका राज्य को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता था, नहीं देती तो धर्म की हानि होती, ऐसी विषम परिस्थिति में कोई निर्णय करें भी तो क्या करें? परंतु विषम परिस्थिति में सक्षम निर्णय लेना अहिल्या की जन्मजात विशेषता थी। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में अहिल्या का निर्णय अद्भुत एवं अकल्पनीय था। अहिल्या, आनंदीबाई के निवेदन को स्वीकार कर उन्हें राज्य में शरण देती है। साथ ही साथ महेश्वर से पहले पडने वाले गांव मंडलेश्वर में आनंदीबाई की सेवा सुश्रुषा की व्यवस्था की गई। पुणे दरबार को पत्र लिखकर सूचित किया गया हमने राज आज्ञा का पालन कर आनंदीबाई पेशवा को अपने घर में शरण नहीं दी परंतु स्त्री धर्म का पालन करते हुए एवं उनकी दो जीवों की अवस्था को देखते हुए हम उन्हें अपनी ड्योढी पर स्थानापन्न करते हैं। वह होलकारों की राजधानी में नहीं है और राजधानी से बाहर भी नहीं है। आनंदीबाई का प्रसव मंडलेश्वर में संपन्न हुआ। अहिल्या के इस निर्णय की सारे भारतवर्ष में प्रशंसा हुई। पेशवा दरबार अहिल्या के इस निर्णय को स्वीकार कर उनकी भूरी भूरी प्रशंसा करता है। यहां विशेष रूप से उल्लेखित करना आवश्यक है कि यह आनंदी वही थी जिनके पति रघुनाथ राव पेशवा ने कुछ समय पूर्व ही मालवा की दौलत को हड़पने के लिए षडयंत्र किया था परंतु अहिल्या के निर्णय में शत्रु के पत्नी के प्रति कोई दुराग्रह नहीं था अपितु उनका यह निर्णय मनुष्यता एवं मनुजता के नए मानदंड स्थापित करता है। इसीलिए तो अहिल्या को पुण्य श्लोक मातोश्री अहिल्या कहा जाता है। मित्रों बुरे कार्य तो हर कोई कर सकता है परंतु सत्य के मार्ग का अवलंबन कर समाज हित में अच्छे कार्य संपन्न करना उन्हीं के प्रारब्ध में होता है जिन पर ईश्वर की विशेष अनुग्रह होता है।
– किरण शानी