साहित्य तो साहित्य होता है । साहित्य का न धर्म होता है, न साहित्य की जात होती है। न साहित्य ऊंचा होता है, न साहित्य नीचा होता है। साहित्य समाज का दर्पण है और साहित्यकार की भाव अभिव्यक्ति का प्रस्फुटन। मानव हृदय के उद्गार पता नहीं कब से दलित हो गये और दलित साहित्य का चोला पहन लिया!!
खेर! दलित साहित्य नामकरण संस्कार के अनुसार दलित समाज से प्रतिबद्ध है। वर्णों, वर्गों एवं अन्य संकुचित भेदों पर आधारित समाज व्यवस्था का विरोधी दलित साहित्य अपनी मूलभूत निष्ठा में सामाजिक संवेदना का साहित्य कहा जाएगा । लेकिन कई अर्थ में दलित साहित्य वेद , ऋचाएं और पौराणिक आख्यानों का विद्रोही है । अमाननीय परंपराओं एवं रुढ़ियों के प्रति विद्रोह समाज विकास के लिए बहुत अच्छा संकेत है। लेकिन विद्रोह यदि आधे अधुरे कहा कहे कपोल कल्पित दुष्प्रचार पर आधारित होने के कारण नकारात्मकता का प्रतीक बन जाता है। लगभग ऐसे ही विचार का कपोल कल्पित तरु बन गया है दलित साहित्य!!
पिछले चार-पांच दशकों में लिखा गया दलित साहित्य न वैयक्तिक निराशा, कुंठा आत्म निर्वासन की भावना से उपजा प्रतीत होता है, न वह जीवन शैली में सार्थक चिंतन पैदा करने वाला सिद्ध हुआ माना जा सकता है। दलित साहित्यकार साहित्य को सामाजिक परिवर्तन क्रांति का एक महत्वपूर्ण साधन मानते हैं और वास्तव में साहित्य है भी। लेकिन दलित साहित्य में स्वायत्तता, विशुद्धतावाद एवं
सौंदर्यवाद का कोई स्थान नहीं है। वे वैयक्तिक सुख-दुख के जाल में अटकी मानवीय संवेदना की अपेक्षा सामाजिक सुख-दुख की अभिव्यक्ति करने वाली क्रांतिधर्मी संवेदना को ही साहित्य और कला का सही आशय मानते हैं। इस आधी अधुरी काना फूसी की कोंख में जन्में विचार के फलने फूलने से दलित साहित्य में आवेश और आह्वान के साथ बहुत अधिक सामाजिक द्वेष पैदा करने की क्षमता के कारण अमृत वर्षा से ज्यादा ज़हर उगलने और फैलाने वाला साबित का हुआ है। जिसके चलते दलित साहित्य पर प्रश्न चिन्ह लगने लगा है। गीता और मनुस्मृति को हेय बताने वाली सामाजिक व्यवस्था को नकारते हुए अपनी एक कविता में नामदेव ढसाल लिखते हैं -“मेरी नजर से तुम पूरे उतर चुके हो,
तुम्हारे लिए मुझ में न आदर है न गुणगान करने की इच्छा,
लगता है पान खाकर तुम पर ढेर सारा थूक दूं,
डूबा दूं तुम्हें बिष्ठा के मटके में।”
दलित साहित्यकारों की कविता में मुख्यतः आत्मबोध के स्थान पर मनुवाद के प्रति दिल खोल कर के घृणा का भाव प्रस्फुटित होता है और अंबेडकरवादी समाज को प्रायः अमानवीय व्यवस्था का शिकार निरूपित करने पर जोर देता है।
दलित साहित्यकार अपने और समाज के शोषित संबंधों को अपनी कविताओं एवं साहित्य में अभिव्यक्त करने में गर्व महसूस करते हैं। लेकिन सुधारात्मक कथोपकथन विलोपित नज़र आते हैं!!
इस प्रकार की ऊहापोह लेखनी में हम देखते हैं कि दलित साहित्यकार सामाजिक जागृति जैसी बात करने में तो सफल होता है, लेकिन साहित्य में स्वायत्तता भाव की उदासीनता के चलते रचना को साहित्य का स्तर दिलाने में असमर्थ हो जाता है। संवैधानिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक में नई साहित्य धारा में बाढ़ तो आ गई, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे कहा जा सकता है कि दलित साहित्य के माध्यम से डाॅ अम्बेडकर के सपनों का समाज बनता दिखाई देता हो अथवा वर्तमान परिदृश्य में नया सुख,कला और सौंदर्य का प्रादुर्भाव हुआ हो!!
भारत की राजनीति और समाज में महात्मा गांधी और अंबेडकर का स्थान अप्रतिम है। सूक्ष्म और सापेक्ष दृष्टि से देखने पर यह कहा जा सकता है कि गांधी ने जिस नीति और मुस्तैदी से अपना कार्य चलाया , उसी नीति को डॉ अंबेडकर ने स्वीकार किया। जहां साबरमती व दांडी आदि स्थानों पर गांधी ने सत्याग्रह किया। लगभग उसी समय अंबेडकर ने महाड़ और नासिक का सत्याग्रह चलाया। दोनों में फर्क इतना था कि गांधी का सत्याग्रह राजनीतिक था और अंबेडकर का सामाजिकता से राजनीति की ओर उन्मुख। अपने हक, अधिकार और अस्मिता के लिए संघर्ष करने की तकनीकी डॉ अंबेडकर ने महात्मा गांधी से सीखी थी। इस तथ्य में सच्चाई भी है, क्योंकि दोनों ही महापुरुष अस्पृश्यता के लिए कार्य कर रहे थे। दलित साहित्य का मनो-साहित्य अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि दलित साहित्य में बार-बार अंबेडकर की भावनाओं में गांधीजी से पुछा जा रहा है कि “हम दलितों का देश कहां है”? जो कार्य तिलक ने उच्च वर्णों के लिए, ज्योतिबा फुले ने मराठा, माली, तेली जैसे समाज के लिए किया, वही कार्य अंबेडकर ने महार, चमार ,डोम, जैसे डिप्रेस्ड समाज के लिए किया है। दलित साहित्य में स्वायत्तता, विशुद्धतावाद बोध के स्थान पर मलेछ होने का भाव अधिक दिखाई देता है। इस तरह की साहित्य साधना और मंथन की मानसिकता को डॉ भीमराव अंबेडकर और बाद में कांशी राम जी की दलित, शोषित, अछूत, वंचित जेसी संज्ञाओं से पुकारे जाने वाले समाज के विकास की अवधारणा से मेल नहीं खाता है!!
साइमन कमीशन द्वारा 1935 में अनुसूचित जाति के लिए दी गई परिभाषा के अनुसार अंबेडकर का समाज, सामाजिक, आर्थिक , सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत निचले स्तर पर था। आर्थिक दृष्टि से दरिद्र और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा था और सामाजिक- सांस्कृतिक दृष्टि से निर्वासित था। यही आधार बना दलित साहित्य के रचना धर्मीयों का। लेकिन समय की धारा के अनुसार विचारधारा में परिवर्तन होना चाहिए था वह दलित साहित्य में स्थान नहीं पा सका है !!
मृत्यु से 2 महीने पहले डॉ अंबेडकर अपने असंख्य अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म इस उद्घोष के साथ कि
“हिंदू धर्म में जन्म लेना मेरे बस में नहीं था, लेकिन हिंदू धर्म में रह कर नहीं मरना मेरे बस में है”, ग्रहण कर चुके थे।
चुंकि दलित साहित्यकार अपने को अंबेडकर विचारधारा को पल्लवित पुष्पित और प्रगाढ़ करने के अधिकारी मानते हैं। राजनीतिक और सामाजिक अनुयाई होने के कारण यह उनका अधिकार भी बनता है। इसलिए सनातन धर्म और हिंदू धर्म की बुराइयां ढुढते समय उसे “चार्वाक” पंथ में दलित समाज के उत्थान में आशा की किरण दिखाई देती है। दलित साहित्यकारों के लिए गौतम बुद्ध और उसका धर्म जाति भेद रहित समाज का विकल्प रखने के कारण श्रद्धेय है। लेकिन आजादी के बाद हमारे देश में लगभग सभी साहित्यकार राष्ट्रीयता की परिभाषा को भूलते जा रहे हैं और धार्मिकता हमारे रक्त में ज्यादा से ज्यादा समाती जा रही है। डॉ अंबेडकर की राष्ट्रीयतावादी की श्रेष्ठता साबित करने के लिए यहां महात्मा गांधी, जिन्ना और अंबेडकर का उसे समय एक पत्रकार को दिए गए साक्षात्कार का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। राष्ट्र बड़ा है या धर्म? इस विषय पर एक पत्रकार ने डॉ अंबेडकर, महात्मा गांधी और जिन्ना से प्रश्न पूछा तो जिन्ना ने कहा- “पहले धर्म फिर राष्ट्र। महात्मा गांधी ने कहा- “पहले राष्ट्र फिर धर्म।” डॉ अंबेडकर ने कहा- “पहले भी राष्ट्र और बाद में भी राष्ट्र”। हमारे संविधान निर्माता महापुरुष ने पहले और बाद दोनों स्थान पर राष्ट्रको महत्व दिया है। ईश्वर दलित साहित्य अकादमी और दलित साहित्यकारों का ध्यान नहीं गया है।
प्रारंभ में दलित साहित्य अनुसूचित जाति जनजाति के लेखकों द्वारा लिखा जाने लगा, लेकिन सरकारों और साहित्यिक संस्थाओं से वहावाही लूटने की होड़ में इस पर ऐसे लोगों ने आधिपत्य कर लिया जिनका दलितों, पिछड़ों, शोषितों और अछूतों से कोई लेना-देना नहीं न था,न है। कोई सरोकार न था, न है। और ऐसे तथाकथित दलित साहित्यकारों को अकादमियों द्वारा खुब सराह गया और जाने-माने “तमकों” से भी नवाजा जाने लगा। दलित साहित्य अकादमियों द्वारा प्रथा आज भी जारी है!!
पिछले दशकों में लिखा गया दलित साहित्य , शोषित जाति का साहित्य बनकर रह गया है। पाठकों की संख्या निहायत सीमित हो गई और ऐसा लगने लगा कि उनका साहित्य भारतीय संस्कृति और संस्कारों के प्रति दुर्भावना फैलाता है। यशवंत मनोहर की कविता में बानगी देखें –
” मैं पोतता हूं उबलता कोलतार,
तुम्हारे कथाकथित देवताओं के मुंह पर, देवता को खड़ा करने वालों के षड्यंत्रकारी शब्दों पर।”
जाति और धर्म का संघर्ष को बुराइयों के दूर होने पर थम जाएगा। लेकिन शब्दों का संघर्ष कब तक….। कहना मुश्किल है!!
– डॉ. बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’