जनजातीय समाज को मिलने वाले लाभ का अधिकांश कन्वर्ट होकर इसाई या मुस्लिम बन चुके लोग हड़प रहें हैं
जनजातीय मुद्दों पर प्रतिदिन अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले विभिन्न संगठन व राजनीतिक दल डीलिस्टिंग जैसे संवेदनशील मुद्दे पर चुप क्यों हैं? स्पष्ट है कि वे धर्मान्तरित होकर जनजातीय समाज के साथ छलावा करने व धोखा देने वाले लोगों के साथ खड़े हैं. ये कथित दल, संगठन और एनजीओ भोले-भाले जनजातीय समाज के साथ नहीं, बल्कि उन लोगों के साथ खड़े हैं जो धर्मांतरण करके जनजातीय परम्पराओं को छोड़ चुके हैं और आरक्षण का 80 प्रतिशत लाभ केवल अपने परिवार, कुनबे और आसपास के 20 प्रतिशत लोगों को दिला रहे हैं. इन कथित नकली जनजातीय समाज के लोगों के कारण आरक्षण का लाभ हमारे वास्तविक और सच्चे वनवासी समाज को मिल ही नहीं पा रहा है. आरक्षण की आत्मा व मूल तत्व को इन लोगों ने नष्ट कर दिया है. कवि दुष्यंत की ये पंक्तियाँ यहां पूरी तरह चरितार्थ होती हैं –
यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां, मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा.
आज, जबकि देश में एक बड़ा ही सकारात्मक शब्द गुंजायमान हो रहा है – डीलिस्टिंग. ग्राम सभा, पंचायत, चौपाल, विधानसभा, लोकसभा और समूचा समाज डीलिस्टिंग की चर्चा कर रहा है. जनजातीय विषयों पर बड़ी मुखरता से बोलने वाले और इनके कंधों पर अपनी बंदूक रखकर राजनीति करने वाले व्यक्ति, संगठन, राजनीतिक दल, एनजीओ सभी इस विषय पर चुप हैं. संवेदनशील व अतीव महत्वपूर्ण विषय पर सभी चुप्पी साधे हैं और देखो और बढ़ो की सुरक्षात्मक नीति अपनाए हुए हैं.
डीलिस्टिंग के अंतर्गत संविधान के अनुच्छेद 342 में अनुच्छेद 341 जैसा मूल तत्व स्थापित किया जाना है अर्थात अनुसूचित जनजातियों के मानक में अनुसूचित जातियों की भांति धर्म परिवर्तित लोगों को डीलिस्ट करना है अर्थात बाहर करना है. ईसाई व मुस्लिम धर्म में धर्मांतरित हो चुके कथित जनजातीय लोग अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ उठाते हैं और जनजातीय आरक्षण का भी. 1970 में डॉ. कार्तिक उरांव ने लोकसभा में 348 सांसदों के हस्ताक्षर से इस विसंगति के विरोध में प्रस्ताव रखा था. यदि डॉ. कार्तिक उरांव का यह प्रस्ताव मान लिया जाता तो आज जनजातीय आरक्षण में चल रहा अन्याय का पूर्ण चक्र ही समाप्त हो जाता. आरक्षण की मूल आत्मा के अनुरूप लाखों वंचित व निर्धन जनजातीय परिवारों का उन्नयन हो चुका होता. कार्तिक उरांव जी के उस प्रस्ताव को संविधान में सम्मिलित कराना ही आज के डीलिस्टिंग अभियान का प्रमुख उद्देश्य है. भगवान बड़ादेव या पड़ापेन या भोलेनाथ जनजातीय समाज के आराध्य हैं और डीलिस्टिंग का बड़ा ही सरल अर्थ है – “जो भोलेनाथ का नहीं, वह हमारी जाति का नहीं”.
बड़वानी में डीलिस्टिंग की मांग को लेकर आयोजित जनजाति समाज की रैली (फाइल फोटो)
डीलिस्टिंग के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का केरल राज्य बनाम चंद्रमोहन का निर्णय अतीव प्रासंगिक है. जस्टिस वीएन खरे सीजे, एसबी सिन्हा एवं एसएच कपाड़िया ने कहा कि – “आर्टिकल 342 के अनुसार अनुसूचित जनजातियों को आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए, संरक्षण प्रदान करने के प्रयोजन के लिए अधिकार प्रदान करना है.” चूंकि पीड़ित के माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया है, इसलिए पीड़ित अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है. धर्म परिवर्तन के कारण कोई जनजाति व्यक्ति जनजाति नहीं रह जाता है, जबकि संविधान (अनुसूचित जाति) [(केंद्र शासित प्रदेश)] आदेश, 1951 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियों के संबंध में यह दिखाने के लिए कि कोई भी व्यक्ति जो हिन्दू, सिक्ख या बौद्ध से अलग धर्म को मानता है, उसे समझा नहीं जाएगा. अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए, ऐसा कोई प्रावधान संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में निहित नहीं है. हमारी राय में यह अनुरोध स्वीकार नहीं किया जा सकता है.
आज आरक्षण सुविधाओं का 80 प्रतिशत लाभ समाज का एक ऐसा धर्मांतरित वर्ग उठा लेता है जो धनाड्य है व सभी दृष्टि से विकसित है. हमारे देश का जनजातीय समाज समूचे राष्ट्र हेतु एक श्रमशील, दाता, सबसे समरस होने वाला किंतु स्वयं के महत्त्व से अनभिज्ञ व भोला भाला समाज रहा है. इस समाज के भोले भाले स्वभाव का ही परिणाम रहा कि लालची, देश विरोधी व समाज में अलगाव घोलने वाले तत्वों हेतु जनजातीय समाज गतिविधियों का केंद्र रहा है. देश के जनजातीय समाज को मुख्यधारा से बाहर रखने व इन्हें मिलने वाले लाभों से वंचित रखने के कार्य के केंद्रबिंदु वे लोग रहे जो इस समाज के ही हैं व इस समाज को मिलने वाली शासकीय सुविधाओं का लाभ उठाकर उच्च वर्गीय हो गए हैं. दुःखद स्थिति है कि आरक्षण का लाभ उठाने हेतु मुस्लिम समाज ने समाज की युवा भोली भाली लड़कियों को लव जिहाद का शिकार बनाने का अभियान चला रखा है और ईसाई समाज ने वंचित जनजातीय समाज को धर्मांतरण से अपनी विभाजनकारी गतिविधियों का केंद्र बनाया हुआ है.
जनजातीय समाज ने असम में “मेंठाग रोग मेंठाग अजक कोंग” का नारा लगाया, “अबुवा दिशुम अबुवा राज” का नारा लगाया, महाराष्ट्र में “आमच्या गावांत आमच्या सरकार” का नारा लगाया, उड़िसा में “आमोरो गारे आमोरो शासन” का नारा लगाया, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लोगों ने “मावा नाटे मावा राज” का नारा लगाया. ये सारे नारे व आंदोलन अच्छे शब्दाडंबर से बंधे हुए भाषणों से लदे और जनजातीय समाज हेतु बड़े ही हितकारी प्रतीत होते हैं. किंतु अधिकांश अवसरों पर यह देखने में आता है कि हमारे भोले भाले वनवासी समाज को देश के विभाजनकारी, विघ्नसंतोषी वामपंथी अपने षड्यंत्रों में फंसा लेते हैं.
संविधान के अनुच्छेद 341 एवं 342 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अखिल भारतीय व राज्यवार आरक्षण तथा सरंक्षण की व्यवस्था की गई थी. सूची जारी करते समय धर्मांतरित ईसाई और मुस्लिमों को अनुसूचित जाति में तो शामिल नहीं किया गया, किंतु अनुसूचित जनजातियों की सूची से धर्मांतरित होने वालों को इस सूची से बाहर नहीं किया गया और आज यह बड़ी विसंगति है. इस कारण हमारे समाज में आरक्षण की मूल भावना व आत्मा ही नष्ट हो रही है. इस विसंगति पर कार्तिक उरांव जी ने “20 वर्ष की काली रात” पुस्तक भी लिखी. इस विसंगति को दूर करने के लिए तब संयुक्त संसदीय समिति का गठन भी हुआ था, जिसने अनुच्छेद 342 में धर्मांतरित लोगों को बाहर करने के लिए 1950 में राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश में संशोधन की अनुशंसा की थी. इस दिशा में 1970 के दशक में प्रयास जारी थे, किंतु कानून बनने से पहले ही लोकसभा भंग हो गई. जनसंख्याविद डॉ. जे. के. बजाज के अध्ययन में भी इस प्रकार के अन्य तथ्य समाज व शासन के समक्ष रखे गए थे व सुझाव दिए थे कि –
– राजनीतिक दल अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीट पर धर्मांतरित व्यक्ति को टिकट नहीं दें.
– अनुसूचित जनजाति सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधि इस मांग के समर्थन में आएं व धर्मांतरित व्यक्तियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से डीलिस्ट करने की मांग करें.
– जनजाति वर्ग के वंचित वर्ग के साथ कर रहे इस प्रकार के समस्त आरक्षणधारी जन प्रतिनिधियों को पदों से हटाने हेतु वातावरण तैयार करें.
– जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सरकारी नौकरियों को हथियाने वाले षड्यंत्रकारी धर्मांतरित व्यक्तियों के विरुद्ध न्यायालयीन कार्यवाही हो.
– विकसित जनजाति बंधु अपने समाज के वंचित वर्ग को आरक्षण का लाभ दिलाने हेतु वातावरण निर्मित करें.
(लेखक विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार हैं.)