अंग्रेजों के खिलाफ 1770 में स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल फूंकने वाले आदिवासी क्रांतिवीर बाबा तिलका मांझी

अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह के बारे में हम सब जानते हैं लेकिन अधिक लोगों को ये ज्ञात नहीं कि इनके विरुद्ध वनवासियों ने भी विद्रोह किया था. वनवासियों ने न केवल अंग्रेज़ों के विरुद्ध सन 1857 के कई वर्ष पूर्व विद्रोह किया था अपितु इस बात के भी साक्ष्य उपलब्ध हैं कि वनवासी समुदाय के नेतृत्व ने अंग्रेज़ शासन के विरुद्ध जनमत को एकजुट किया था. इनमें ऐसा ही एक नाम है भूमि-पुत्र क्रांतिकारी तिलका मांझी जिसे समय के साथ भुला दिया गया..मांझी ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया था जिसका अनुसरण दशकों तक होता रहा…

ऐसा माना जाता है कि जबरा पहाड़िया यानी तिलका मांझी का जन्म 11 फ़रवरी सन 1750 में सुल्तानगंज के तिलकपुर(बिहार) में हुआ था. इस बात को लेकर संशय है कि मांझी पहाड़िया थे या फिर संथाल..इतिहासकारों ने इस विषय पर वर्षों तक शोध किया है लेकिन किसी परिणाम पर नहीं पहुंच पाए. अंग्रेज़ों के लेख पत्रों के अनुसार उनका नाम जबरा पहाड़िया था. पहाड़िया भाषा में तिलका का अर्थ होता है एक ऐसा व्यक्ति जिसकी आंखें क्रोध से लाल होती हैं. चूंकि तिलका मांझी ईस्ट इंडिया कंपनी से क्रोधित थे इसलिए कंपनी के अधिकारी उन्हें इसी नाम से बुलाने लगे. बाद में जबरा अपने गांव के मुखिया बन गए और तब गांव की प्रथानुसार के अनुसार ग्राम-प्रधान को मांझी कहा जाता था. इस तरह तिलका मांझी चरित्र का उदय हुआ.

सन 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल शासन से बंगाल को स्वतंत्र राज्य बनाने के बाद बंगाल के नवाबों ने जागीरदारी प्रशासनिक व्यवस्था जारी रखी. लेकिन स्थानीय ज़मींदार और जागीरदार वनवासियों का शोषण करने लगे और उनसे उनकी कृषि भूमि और उपज पर बलपूर्वक अनुचित कर लेने लगे. शीघ्र ही ज़मींदारों की जगह ईस्ट इंडिया कंपनी ये कर उगाहने लगी. शोषण इतना बढ़ गया कि वनवासियों के पास विद्रोह के सिवाय और कोई उपाय नहीं बचा.

सन 1750 में ईस्ट इंडिया कंपनी नवाब सिराजुद्दौला से जंगल महल क्षेत्र ( आज बंगाल के मिदनापुर ज़िले में आदिवासी भूमि) ले चुकी थी। सन 1764 में बक्सर युद्ध में मीर क़ासिम की पराजय के बाद कंपनी ने सन 1765 में संथाल परगना और छोटानागपुर पर भी नियंत्रण कर लिया। परिणामस्वरूप बंगाल की दीवानी, कंपनी के हाथों चली गई.

सन 1770 में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में बंगाल और बिहार की दीवानी, ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आने के बाद आदिवासियों का उनकी भूमि के साथ कृषि संबंधी नाता पूरी तरह टूट गया.. कंपनी के लगातार बढ़ते कर को चुकाने की विवशता से वनवासी महाजनों के ऋण में डूबते चले गए. चूंकि वनवासी कर नहीं चुका पा रहे थे इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने महाजनों से सांठगांठ कर संथाल परगना में उनकी भूमि हथिया ली. इस तरह वे अपनी ही भूमि पर कृषि श्रमिक या किरायेदार बनकर रह गए..

अपनी यौवनावस्था में ही तिलका मांझी ने ये परिवर्तन देखे थे.. इससे उनके मन में वनवासियों की भूमि से अंग्रेज़ों को खदेड़ने कर इन्हें फिर वनवासियों को सौंपने का संकल्प आया… सन 1770 के आते आते मांझी भागलपुर में छोटी मोटी सभाओं में लोगों से जाति-धर्म से उठकर अपने अधिकार के लिए कंपनी शासन का विरोध करने की अपील करने लगे थे….

वर्ष 1770 बंगाल के भयंकर अकाल के लिए जाना जाता है. माना जाता है कि काल में भूख से अनुमानित एक करोड़ नागरिकों की मृत्यु हुई थी. संथाल परगना और बिहार अकाल से सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्रों में से थे. लोग अकाल की वजह से ईस्ट इंडिया कंपनी से कर में छूट और अन्य सहायता की आशा कर रहे थे लेकिन कंपनी के कानें में जूं तक नहीं रेंगी ..
बल्कि कंपनी बलपूर्वक कर संग्रहण करने लगी लेकिन उसने अकाल से पीड़ित नागरिकों की कोई सहायता नहीं की न लाखों लोग भुखमरी ,बीमारी से काल को प्राप्त हुए.

मानव त्रासदी से अधिक ऐसा कोईं ईंधन नहीं है जो विद्रोह की ज्वाला को प्रचंड करे . ऐसे ही वातावरण में सन 1770 में भागलपुर में ईस्ट इंडिया कंपनी का कोष लूटकर उसे कर से प्रभावित किसानों और अकाल पीड़ित वनवासियों के बीच तिलका ने बांट दिया. तिलका के इस कृत्य से वनवासियों में उसकी स्वीकार्यता और प्रतिष्ठा बढ़ने लगी ,कंपनी की दृष्टि में वह रॉबिन हुड बन गए.

उस समय बंगाल वारन हैस्टिंग की कमान में था और उसने तिलका को पकड़ने और विद्रोह को कुचलने के लिए 800 सैनिकों का एक जत्था,कैप्टेन ब्रुक के नेतृत्व में भेजा. सेना ने संथालियों पर बहुत अत्याचार किए लेकिन तिलका को नहीं पकड़ पाए……

सन 1778 में, 28 साल के तिलका मांझी के नेतृत्व में एकजुट वनवासियों ने कंपनी की पंजाब रेजीमेंट पर आक्रमण कर दिया जो रामगढ़ (वर्तमान में झारखंड) में नियुक्त थी. वनवासियों ने उन पर इतना सशक्त आक्रमण किया था कि उनके पारंपरिक शस्त्रों के समक्ष कंपनी की बंदूक़ें टिक नहीं सकीं और सैनिकों को अपने प्राण बचाकर छावनी से भागना पड़ा.

रामगढ़ की अपमानजनक पराजय के बाद अंग्रेज़ों को अनुभव हो गया कि अगर इस समस्या से, ठीक से नहीं निबटा गया तो बंगाल के वन क्षेत्रों में वनवासी उनके हितों के लिए पीड़ादायी बन सकते हैं. अंग्रेज़ों ने मुंगेर, भागलपुर और राजमहल में कर उगाही के लिए चालाक अंग्रेज़ अधिकारी अगस्त क्लीवलैंड को नियुक्त किया. क्लीवलैंड जानता था कि विद्रोह की सबसे बड़ी शक्ति वनवासी एकजुटता थी और विद्रोह को कुचलने के लिए इसे तोड़ना आवश्यकहै. समस्या से निबटने के लिए सबसे पहले उसने संथाली भाषा सीखी ताकि वह वनवासियों से उनकी भाषा में बात कर सके. कहा जाता है कि कर में छूट आदि जैसी क्लीवलैंड द्वारा दी गईं सुविधाओं के कारण लगभग चालीस स्थानीय जनजातियों ने कंपनी का आधिपत्य स्वीकार कर लिया.क्लीवलैंड ने पहाड़ों के आदिवासियों की एक सेना भी खड़ी कर दी. ये एक तरह का मास्टर स्ट्रोक था, जिसके चलते वनवासियों को सैनिक बनाकर उन्हें शासकीय सेवक का नाम दे दिया गया ताकि वनवासियों की एकता में कमी हुई.

तिलका को भी इस सेना में सम्मिलित होने और कंपनी का आधिपत्य स्वीकार करने पर स्थानीय मुखियाओं और वनवासियों को कर से छूट का प्रस्ताव दिया गया लेकिन तिलका को अंग्रेज़ों का षड्यंत्र समझ आ गया, उन्होंने प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा पूरी शक्ति से से वनवासी एकता और क्लीवलैंड के विरुद्ध निर्णायक युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी .वनवासी तब भी तिलका का समर्थन करते थे और उन्हें प्रेम करते थे. तिलका ने साल वृक्ष के पत्तों पर लिखकर, उन सभी वनवासी समूहों को संदेश भेजे, जिन्होंने अंग्रेज़ों का आधिपत्य मानने से मना कर दिया था. इस संदेश में तिलका ने उनसे, उनकी भूमि बचाने के लिए एकजुट होने का आव्हान किया. इस संदेश का बहुत प्रभाव हुआ और बड़ी संख्या में आदिवासी तिलका के समर्थन में खड़े हो गए

तिलका ने भागलपुर पर आक्रमण कर शत्रु को अचानक घेरने का साहसिक निर्णय किया. सन 1784 में भागलपुर में वनवासियों के इस आक्रमण से अंग्रेज़ भौंचक्के रह गए. वनवासियों और अंग्रेज़ों के बीच भारी गोलीबारी हुई. हमले में तिलका ने अपनी धनुर्विद्या एवम लक्ष्यभेद की अतीव शक्ति का परिचय दिया जिसके आगे क्लीवलैंड टिक नहीं सका. इस आक्रमण से क्लीवलैंड और अंग्रेज़ों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा. क्लीवलैंड को तिलका का विषबुझा तीर लगा था और वह अपने घोड़े से गिर पड़ा था। कुछ दिनों के बाद ही उसकी मृत्यु हो गई. अंग्रेज़ों का मनोबल तोड़ने के बाद तिलका मांझी और उनके साथी वापस सुरक्षित जंगल पहुंच गए.

किसी भारतीय वनवासी द्वारा क्लीवलैंड का वध ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए एक चेतावनी की तरह थी. अंग्रेज़ों ने इस घटना के बाद विद्रोह कुचलने और तिलका को जीवित अथवा मृत पकड़ने के लिए लेफ़्टिनेंट जनरल एय्रे कूटे के नेतृत्व में एक बड़ा सैन्यदल भेजा. ऐसा विश्वास किया जाता है कि मांझी के दल के ही किसी व्यक्ति ने अंग्रेज़ों को उनके आश्रय की सूचना दे दी थी और अंग्रेज़ों के अर्धरात्रि में किए अचानक आक्रमण से वे हड़बड़ा गए. तिलका तो किसी तरह बच निकले लेकिन इस आक्रमण में उनके कई साथी बलिदान हो गए शस्त्र नष्ट हो गए ….

तिलका अपने पैतृक नगर सुल्तानगंज के वनों में चलो गए और वहीं से अंग्रेज़ों के विरुद्ध छापामार युद्ध चलायमान रखा लेकिन शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने तिलका और उनके साथियों की खाद्य आपूर्ति बंद कर दी जब खाद्य आपूर्ति बंद हो गई तो तिलका के पास अंग्रेज़ों से लड़ने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं बचा. ऐसा माना जाता है कि 12 जनवरी सन 1785 को तिलका और उनके साथियों का अंग्रेज़ों से अंतिम युद्ध हुआ भूख और थकान से निढ़ाल उन लोगों पर अंग्रेज़ों ने अधिकार पा लिया और तिलका पकड़ लिये गए……

इसके बाद जो हुआ वह बहुत भयावह था. तिलका को घोड़ों से बांधकर भागलपुर तक मीलों घसीटा गया….. कहा जाता है कि भागलपुर पहुंचने पर भी जब ख़ून से लथपथ तिलका को खोला गया तब भी वह जीवित थे. लोगों ने तिलका मांझी का अल्प किन्तु ऊर्जा से भरपूर जीवन कोसमाप्त होते हुए देखा. 13 जनवरी सन 1785 को तिलका पहाड़िया को फांसी पर चढ़ा दिया गया . तब उस योद्धा की आयु केवल 35 वर्ष थी.

जिस तरह रोम में स्पार्टाकस ने दमनकारियों के विरुद्ध जन-आंदोलन किया था ठीक उसी तरह तिलका ने भी किया. इस तरह तिलका को भारत का स्पार्टाकस कहा जा सकता है. स्पार्टाकस की ग़ुलामों की सेना की तरह तिलका की सेना ने भी कहीं अधिक शक्तिशाली विरोधियों के छक्के छुड़ा दिए थे, लेकिन एक तरफ़ जहां स्पार्टाकस की कथाएं और प्रसिद्धि जगतज्ञात हैं वहीं तिलका और अपने लोगों के लिए उनके महान बलिदान की कथा हमारी इतिहास की किताबों में दबकर रह गई है. बिहार सरकार ने तिलका के बलिदान की स्मृति में सन 1991 में भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर तिलका मांझी विश्वविद्यालय कर दिया था. जिस जगह उन्हें फ़ांसी दी गई गई थी वहां भी उनकी स्मृति में एक स्मारक बनवाया गया है. भारत में अंग्रेज़ सरकार ने भी सन 1894 में मांझी के सम्मान में एक सिक्का जारी किया था.

इसे ब्रिटिश सरकार ने सन 1894 में जारी किया था..जबरा पहाड़िया यानी तिलका मांझी की स्मृति में सिक्का. ब्रिटिश सरकार ने सन 1894 जारी में किया था.
अंग्रेज़ों ने विद्रोहियों को प्रताड़ित करने के लिए मांझी को तमाम तरह की अमानवीय यातनाएं दी थीं लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि तिलका मांझी और अंग्रेज़ों के विरुद्ध उनकी वीरता को वनवासियों की आने वाली पीढ़ियों को भी अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित करती रहेगी. अंग्रेज़ों ने भले ही तिलका को मृत्युदण्ड दिया हो, हमारी इतिहास की किताबों ने भले ही उन्हें भुला दिया हो लेकिन तिलका आज भी वनवासियों के लोक गीतों में अमर हैं जो हमें सन 1770 के दशकों की याद दिलाते हैं जब “युवा डेविड” ने संथाल परगन की पहाड़ियों में विशालकाय “गोलायथ” को मार गिराया था.

आज ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की जन्मजयंती पर शत-शत नमन
अचला शर्मा ऋषीश्वर
उज्जैन
8319799426

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