नानक जी दूसरी यात्रा के दौरान 503 साल पहले इंदौर, बेटमा और ओंकारेश्वर आये थे। 1517 में उनके आगमन का उल्लेख पुरातन ग्रंथ गुरु खालसा में मिलता है। जहां जहां उन्होंने शबद सुनाया वहाँ ऐतिहासिक महत्व के गुरु घर बने। इन स्थानों पर आज भी हर साल कई धार्मिक आयोजन होते है, जिनमें हजारों की संख्या में संगत एकत्रित होती है।
इमली साहिब : इमली के पेड़ के नीचे सुनाया शबद तो बना इमली साहिब गुरुद्वारा
गुरु नानकदेव महाराज उनकी दूसरी यात्रा के दौरान दक्षिण से होते हुए इंदौर आये थे। यहाँ खान नदी के किनारे इमली के पेड़ के नीचे आसान लगाकर शबद सुनाया था इसलिए जब यहां गुरुद्वारा बना तो उसका नाम गुरुद्वारा इमली साहिब रखा गया। पहले इस स्थान की सेवा संभाल उदासी मत के पैरोकारों ने और रमईया
सिंघों ने संभाली। इसके बाद होलकर स्टेट के सहयोग के लिए फौज पंजाब से आई तो उन्होंने गुरुद्वारे की सेवा संभाल की। शहर के इस सबसे प्रमुख गुरुद्वारे की व्यवस्था गुरुसिंध सभा द्वारा की जा रही है।
बेटमा साहिब : बावड़ी के खारे पानी को कर दिया था मीठा
गुरु नानकदेव महाराज दूसरी यात्रा के दौरान बेटमा साहिब भी आए थे। गुरु खालसा में उनकी यात्रा का उल्लेख है। पुरातन कथाओं के मुताबिक यह स्थान राजा गोपीचंद की नगरी के नाम से पहचाना जाता था। इस स्थान पर भीलों का आतंक था। गुरुजी ने उन्हें अहिंसा का संदेश दिया। कहा जाता है कि उनके आगमन से यहां बावड़ी का खारा पानी मीठा हो गया। इसके चलते यहां वने गुरुद्वारे का नाम बावड़ी साहिब पड़ा। 1964 में यह गुरुद्वारा गुरुसिंघ सभा के पास रजिस्टर्ड है । गुरु खालसा के अनुसार 1517 में गुरु नानकदेव छह माह यहां रूके थे।
ओंकारेश्वर साहिब : राग रामकली मे ओंकार नामक बाणी का उच्चारण किया
गुरु नानक महाराज दूसरी उदासी के दौरान इंदौर से 80 किलोमीटर दूर ओंकारेश्वर में नर्मदा के किनारे आए थे। यहां पर लोगों को ओंकार की उपमा बताई थी। उन्होंने राग रामकली में ओंकार नामक बाणी का उच्चारण किया था। इस बात की जानकारी 1957 में ज्ञानी संत सिंह को पहली बार गुरुद्वारा तोपखाना (इंदौर) में मिली। इसके बाद संगत के सहयोग से इस स्थान पर 1961 में गुरुद्वारे का निर्माण कार्य शुरू हुआ। उनके प्रयत्नों से ओंकारेश्वर गुरुद्वारे का निर्माण शुरू हुआ। इंदौर, बड़वाह, सनावद, खंडवा, झिरनिया, खरगोन की संगत ने इसमें योगदान दिया। यहां हर साल तीन गुरमत होते हैं।